Wednesday, January 3, 2018

अवश्य पढ़ें: हमदर्दी स्कूली बच्चों से वह करवा सकती है जो सरकार भी कर सकी हो

एन. रघुरामन (मैनेजमेंटगुरु)
साभार: भास्कर समाचार
कल्पना कीजिए कि आप अपने 9वीं या 12वीं में पढ़ने वाले बच्चे को कुछ दिनों के लिए अपने पैतृक गांव अथवा ग्रामीण भारत दिखाने के लिए पिकनिक पर ले जाएं। फिर आप देखें कि वहां अस्वच्छ पेयजल पहले से ही
ग्रामीणों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है तो अाप क्या करेंगे? जाहिर है आप-हम जैसे कोई भी केयरिंग पैरेंट स्कूल जाने वाले अपने बच्चे के लिए यह सुनिश्चित करेंगे कि उसे वहां ठहरने के दौरान स्वच्छ बोतलबंद पानी मिले फिर उसकी लागत कुछ भी क्यों हो अथवा गांव में होने के दौरान स्वच्छ जल के लिए कितने ही प्रयास क्यों करने पड़े। 
ठीक यही 12वीं पढ़ने वाले दो और 9वीं में पढ़ने वाले एक बच्चे के पालकों ने किया। लेकिन, इससे वे बच्चों को उनसे गांव वालों से प्रश्न पूछने और उस बोर-वेल पर जाने से नहीं रोक सके, जहां से गांव वाले पेयजल लेते थे। वे उन्हें जमीनी हकीकत जानने, आंकड़े जुटाने और व्यापक योजना बनाने से भी नहीं रोक सके। अपने सर्वे में इन तीनों स्कूली छात्रों को अहसास हुआ कि उनकी उम्र इससे नीचे के भी ज्यादातर छात्र प्रदूषित जल से बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं के कारण स्कूल से गायब रहते हैं। सारे बोर-वेल के पानी में फ्लोराइड लवण अधिक मात्रा में थे। जिस गांव में वे गए थे वहां 819 सदस्यों वाले 191 परिवार रहते थे, जिन्हें प्रतिदिन कम से कम 2000 लीटर स्वच्छ पेयजल की जरूरत थी। बुनियादी जानकारियों से लैस तीनों बच्चे स्थानीय सरकार के पास गए, जिसने उन्हें फिल्ट्रेशन के लिए आवश्यक जमीन दे दी। निर्माण और अन्य कार्यों के लिए उन्होंने सप्लायरों से सारी सुविधाएं बिना मुनाफे लागत की कीमत पर देने का अनुरोध किया और वे मान गए। 
इन वादों और तय कीमत के साथ उन्होंने एक कास्ट शीट तैयार की। प्रतिदिन 2000 लीटर पानी देने वाले रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) फिल्ट्रेशन प्लांट की लागत 8 लाख रुपए के करीब आई। अब छात्रों के पास जगह हो गई और प्लान बन गया अनुमानित लागत का भी अंदाजा हो गया। अगली सबसे बड़ी चुनौती आवश्यक पैसा जुटाने की थी। पहले तो उन्होंने कुछ जाने-माने फाउंडेशन को पत्र लिखे और उन्हें अपने प्रोजेक्ट और उद्‌देश्य के बारे में बताया। कुछ पत्रों का असर हुआ, जबकि कई बेकार भी रहे। वादे करने वाले ज्यादा नहीं थे पर उस आधार पर उन्हें चैरिटेबल ट्रस्ट स्थापित करने का विचार किया, जिससे उन्हें किसी से भी पैसा लेने का अधिकार मिल जाता। किंतु अब समस्या यह थी कि वे सभी नाबालिग थे। इसलिए उन्होंने अपने पालकों की मदद से ट्रस्ट का रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन, ट्रस्ट से जुड़े सारे काम अकाउंट्स से लेकर ऑडिट और प्रोजेक्ट का ब्ल्यू प्रिंट बनाने तक का काम खुद ही किया। 
फिर छात्रों ने अपने चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से पैसा इकट्‌ठा करना शुरू किया और शहर के विभिन्न परोपकारी लोगों से संपर्क किया। उन्होंने ऐसे मित्रों,परिचितों से भी संपर्क किया, जो मदद करने के इच्छुक हो सकते थे। पूरी राशि का अंतिम हिस्सा ऑनलाइन क्राउडफंडिंग से जुटाया गया। फिर प्रोजेक्ट शुरू हुआ। छात्रों ने ठीक उस तरह से प्रोजेक्ट किया, जैसा सरकार ने किया होता। पांच रुपए का सिक्का किसी भी गांव वाले को 20 लीटर स्वच्छ पेयजल मुहैया करा सकता है और इस तरह से इकट्‌ठा किया गया पैसा जिला पंचायत के पास जाता है ताकि प्लांट के रखरखाव पर खर्च किया जा सके। नए आरओ सिस्टम का 28 दिसंबर 2017 को उद्‌घाटन हुआ। उन्हें यह प्रोजेक्ट साकार करने में पूरा एक साल लगा। उन्होंने इसे किसी बाहरी प्रेरणा के बिना किया, क्योंकि उनके भीतर अपार हमदर्दी थी। बच्चों में हमदर्दी पैदा कीजिए और बच्चों को उस तरह का फर्क पैदा करने का मौका दीजिए जैसा 12वीं में पढ़ने वाले तरुण कुमार रेड्‌डी सुक्रुत कृष्ण कुमार और 9वीं में पढ़ने वाले सुप्रीत कृष्णा कुमार ने कर्नाटक के गांव हेग्गनहल्ली के लिए किया, क्योंकि देश में 6,50,000 गांव हैं और उनमें से ज्यादातर में अन्य बड़े सामािजक मसलों के साथ सुरक्षित, स्वच्छ पेयजल का भी अभाव है। 
फंडा यह है कि हमदर्दीबच्चों को वह करने के लिए प्रेरित कर देत है, जो कभी-कभी सरकार तक नहीं कर पाती।