Monday, October 9, 2017

दूसरों की सवारी आसान बनाना हो तो खुद कठिन सवारी करनी होगी

एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
साभार: भास्कर समाचार
जब देश के 'साइकिल मैन' और हीरो साइकल्स के संस्थापक ओम प्रकाश मुंजाल का 14 अगस्त 2015 को लुधियाना में 86 वर्ष की उम्र में निधन हो गया तो उनके बारे में मुझे एक घटना याद हो आई। यह घटना स्कूलों
में गर्मियों की छुटि्टयां लगने के ठीक पहले की है जब मुंजाल अपने शर्ट की बांहें चढ़ाकर खुद साइकिलें असेंबल करने में लग गए, क्योंकि पंजाब में आम हड़ताल के कारण उनकी फैक्ट्री बंद करनी पड़ी थी। वे कभी नहीं चाहते थे कि जिन पालकों ने अपने बच्चों को परीक्षा के बाद साइकिल ला देेने का वचन दिया हो उन बच्चों को निराश होना पड़े। साइकिल के नन्हे ग्राहकों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता देखकर उनके वर्कर भी बंद दरवाजों के पीछे लौट आए और ऑर्डर पूरे करने के लिए रातभर उनके साथ काम करते रहे। जब हड़ताल के कारण ट्रकों के पहिये थम गए तो उन्होंने साइकिलें पहुंचाने के लिए बसों का इस्तेमाल किया। इस तरह हीरो साइकिल ने काफी तकलीफें उठाई ताकि बच्चों की साइकिल सवारी आसान रहे। 
यह घटना मुझे फिर याद आई जब पुणे इंजीनियरिंग कॉलेज के कुछ छात्रों ने अपने वक्ता शशिशेखर पाठक से 'माइंडस्पार्क' नामक वार्षिक टेक्नोलॉजी उत्सव में प्रदर्शित उनकी साइकिल देखकर पूछा, 'चलती है क्या?' क्योंकि उनकी साइकिल बांस से बनी है और इसीलिए इसे 'बांबूची' कहते हैं। तत्काल भारतीय वायुसेना के इस पूर्व पायलट ने सीढ़ियों पर नीचे उतारकर और उबड़खाबड़ सतह पर चलाकर साइकिल की मजबूती दिखा दी। 
वायुसेना से बाहर आने के बाद पाठक की दूसरी जटिल पारी की शुरुआत पुणे की भोर तहसील में वर्ष 2000 में जमीन का टुकड़ा खरीदकर वहां बांस की खेती करने के साथ शुरू नहीं हो गई। वे गांव में टिकाऊ प्रोजेक्ट स्थापित करने का तरीखा जरूर खोज रहे थे। 
फिर एक दिन बांस से साइकिल बनाने के एक वीडियो ने उनका ध्यान खींचा। यह ट्यूटोरियल देखने के बाद हाथों से काम करने में खुशी पाने वाले पाठक एक मॉडल बनाने को प्रेरित हुए। 2014 में उन्होंने मुंबई स्थित अपार्टमेंट-वर्कशॉप में काम करते हुए एक प्रोटोटाइप तैयार किया। उन्हें आत्मविश्वास था कि अपने इस शौक को वे व्यावहारिक बिज़नेस का रूप दे सकेंगे। पिछले साल से पाठक ने 25 हजार कीमत की बांस की आठ फ्रेम को मंुबई, अमेरिका और श्रीलंका के ग्राहकों को बेचा। इसमें उन्होंने अपनी जमीन पर उगाए गए बांस का ही इस्तेमाल किया। 
अच्छी क्वालिटी की बांबू साइकिल बनाने का पाठक का प्रयास कोई अकेला बिज़नेस नहीं है। बांस में लचीलेपन और धक्का बर्दाश्त करने का गुण अधिक है, इसकी फ्रेम हल्की भी होती है और ज्यादातर धातुओं की तरह यह आसानी से टूटता भी नहीं। भारत और विदेश में कुछ और लोग हैं, जो खरीदार की मर्जी मुताबिक बांस की फ्रेम को आकार देते हैं ताकि सवारी की गुणवत्ता बढ़ाई जा सके। बांस का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसे चलाने में होने वाली मेहनत शरीर की गतिविधि के अनुरूप है। 
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिज़ाइन में पड़े बेंगलुरू के फर्नीचर डिज़ाइनर संदीप सानगारु ने त्रिपुरा के शिल्पियों के साथ काम करके बांस के गुणों का निकट से अध्ययन किया और अब वे बच्चों के लिए बांस की बाइक बनाने की प्रक्रिया में लगे हैं। 
गोदरेज समूह की होल्डिंग कंपनी गोदरेज एंड बॉइस ने भी छह माह पहले बांबूसा के नाम से बांस की साइकिल लॉन्च की है। कंपनी ने सीमित संख्या में बनाई 25 साइकिलें देश के सभी प्रमुख शहरों में बेची। एक साइकिल की कीमत थी 44,999 रुपए। डच साइक्लिस्ट जूस्ट नोटेनबूम और मिशिएल रूडेनब्रग ने दुनिया में जलसंकट के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए 2010 से 2012 के बीच बांस की साइकिल पर अलास्का से अंटार्कटिक की 30 हजार किलोमीटर की यात्रा की, जिसमें उन्हें 20 माह लगे। यह साइकिल ख्यात डिज़ाइनर क्रैग कैल्फी ने बनाई थी और यह मौसम की कठिनतम परिस्थितियों में भी काम करती रही। 
भारत में मिलने वाली बांस की 150 प्रजातियों में से चार किस्में ही ऐसी हैं,जिनसे साइकिल की फ्रेम बनाई जा सकती है। पाठक की खुशकिस्मती है कि उनकी भोर स्थित बांबू नर्सरी में डेंडोकैलेमस स्टॉकसी उगाई जाती है, जिसे महाराष्ट्र में परम्परागत रूप से 'मेश' कहते हैं। 
फंडा यह है कि दूसरों की सवारी को आसा बनाना है तो खुद उबड़खाबड़ रास्ते की सवारी के लिए तैयार हो जाएं। इस कठिन सवारी से आगे जाकर खुद हमारी सवारी भी सुगम हो जाती है।