Friday, March 24, 2017

समाज को कुछ देने से आती है बच्चों में अच्छी सोच

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: दस साल के राजू के लिए यह पल अहम है। मां ने अभी उसका चेहरा पल्लू से पोछा है और उसका माथा चूमा है, क्योंकि उसने आज मां को 30 रुपए दिए हैं। यह परिवार को बचाने जैसा है, क्योंकि आज रात के खाने के
लिए उनके पास कुछ नहीं था। राजू की गहरी आंखें नम हो गईं और वह अपनी मां की कमर से लिपट गया, क्योंकि अभी मां ने फिर उसके माथे को चूमा था। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। राजू जब स्कूल से आता है, तब पहले कभी ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि परिवार हमेशा भोजन के लिए संघर्ष की स्थिति में रहा है। मां ने धीरे से उससे पूछा ये पैसे तुझे कहां से मिले? उसने जवाब दिया, 'मम्मी मैंने खेतों में काम किया और बनर्जी अंकल ने ये पैसे दिए। भूख का कष्ट इतना बुरा होता है कि वह उससे यह भी पूछना भूल गई कि वह उस दिन स्कूल गया था या नहीं। राजू हाथ धोने के लिए चल दिया और मां नम आंखों से उसे जाते देखती रही। उसने ऊपर की ओर देखकर उसे बनाने वाले का आभार माना और कहा, 'बेटा कितना सयाना हो गया है और जिम्मेदार भी।' वह तुरंत किराने का कुछ सामान लाने बाहर निकल गई, ताकि कुछ बनाकर राजू और उसके तीन भाई-बहनों को खिला सके, जो सुबह से भूखे थे। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा और मां को कभी यह अहसास नहीं हुआ कि बेटा स्कूल नहीं जा रहा था, बल्कि 30-40 रुपए के लिए वह रोज खेतों में काम कर रहा था। फिर एक दिन उसके स्कूल के हैडमास्टर धृतिमान सरकार उन कुछ बच्चों के घर यह जानने पहुंचे कि ये दो महीनों से स्कूल क्यों नहीं रहे हैं। तब मां को पता चला। 
उत्तर-पूर्वी भारत के जलपाईगुड़ी से 100 किलोमीटर दूर कूच बिहार के दिनहाटा की मातलहाट पंचायत के प्राइमरी स्कूल के 129 बच्चों में से राजू उन 65 बच्चों में था, जो लंबे समय से स्कूल से गैर-हाजिर थे। आलू की फसल वाले इस क्षेत्र में उपज इतनी ज्यादा हुई थी कि किसान अपने खेतों से फसल काटने के लिए बच्चों से मजदूरी करवा रहे थे। तुरंत नकद पैसे मिलने और परिवार की मदद की कोशिश में बच्चे मजदूरी कर रहे थे और स्कूल में काफी बच्चे अनुपस्थित रहने लगे। राजू की मां चाहती तो थी कि बेटा स्कूल जाए, लेकिन उसे लगा कि वह परिवार की परेशानियों को अस्थायी रूप से कुछ कम तो कर ही रहा है। हालांकि, 14 साल से कम उम्र में बाल मजदूरी पर प्रतिबंध है, लेकिन बच्चों के अपने माता-पिता के साथ खेतों में मदद करने की छूट है और इसी संकरी गली का फायदा उठाकर उत्तर-पूर्व में कई स्थानों पर बच्चों से सस्ती मजदूरी के लालच में काम करवाया जाता है। ऐसे बच्चे हमेशा ईमानदार और सस्ते नौकर माने जाते हैं। शैक्षिक योग्यता तो उनमें कम होती ही है, उन्हें अपने परिवारों की मदद करने में भी आनंद आता है। 
स्टोरी 2: पार्थ मेहता और रफिउल बारी दोनों 18 साल के हैं। दोनों महाराष्ट्र के जल संकट झेल रहे पालघर जिले में जल संग्रहण के पांच गड्‌ढे और एक चैक डैम बनाने के काम में शामिल रहे हैं, इसलिए उनका नज़रिया पूरी तरह बदल गया है। वे मुंबई के केपीबी हिंदुजा कॉलेज के एनएसएस दल के सदस्य थे और पिछले साल इन्होंने स्वच्छ भारत कैंपेन लॉन्च होने के बाद स्वच्छता और साफ-सफाई के लिए काम किया। इस साल इन्होंने बड़ी जिम्मेदारी लेते हुए एक आदिवासी गांव को गोद लिया। फिर जब इन्होंने तीन फीट ऊंचा और 20 फीट चौड़ा चैक डेम बनाने का अपना काम गांव के लिए पूरा किया तो इनके चेहरे पर गर्व की अनुभूति साफ देखी जा सकती थी। उन्हें खुशी थी कि वे समाज कि लिए समस्या का समाधान करने वाले बने हैं और यही तो समय की जरूरत है। 
फंडा यह है कि इन गर्मियों की छुट्‌टियों में यह देखें कि आपके बच्चे समाज के लिए कुछ करें, इससे वे व्यापक सोच वाले बनेंगे। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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