Saturday, March 18, 2017

लाइफ मैनेजमेंट: एक अतिरिक्त हुनर भी सफलता दिला सकता है

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)

स्टोरी 1: यह कोई छुपी बात नहीं है कि पहले का मद्रास और आज का चेन्नई दक्षिण भारतीय फिल्मों की राजधानी है। नई रिलीज के कई सप्ताह पहले ही कलाकार फिल्मों के लिए साइन बोर्ड पेंट कर लेते थे। 49 साल के एस. परमासिवम वे कलाकार थे, जिनकी काफी मांग थी, क्योंकि वे हाव-भाव को फिल्मों के बैनर पर ले आते थे। उनकी बनाई पेंटिंग्स मद्रास के मायलापुर इलाके में अमीर लोगों को फिल्म थियेटरों की ओर आकर्षित करने के लिए लगाई जाती थीं। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उन दिनों फ्लेक्स बोर्ड के चलन के कारण कई पुराने आर्टिस्ट अपने काम से हाथ धोने लगे थे। कई कलाकारों ने दूसरे काम हासिल कर लिए थे। वे ड्राइवर, सिक्यूरिटी गार्ड और दिहाड़ी पर काम करने वाले कामगार बन गए। उस समय शहर में इनकी संख्या करीब 3000 थी। ये लोग जीवन चलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। परमासिवम इसी से जुड़ा कोई काम करना चाहते थे लेकिन, नहीं जानते थे कि क्या। एक दिन पेंटिंग का अपना काम पूरा कर लेने के बाद वे हिरोइन के गालों के रंग पर बारीकी से काम कर रहे थे। वे उस जगह पर थोड़ा ब्लश कर रहे थे। एक अजनबी छोटी गुड़िया के साथ आया। यह बालकृष्ण की प्रतिमा थी और उसने पूछा, 'क्या आप इसे फिर से पेंट कर सकते हैं?' जो कलर ब्रश में था उसे ही उन्होंने बालकृष्ण की डॉल पर लगा दिया और प्रतिमा पहले से काफी सुंदर लगने लगी। उस दिन परमासिवम के दिमाग में यह बात स्पष्ट हो गई कि अगर कंप्यूटर से बने फ्लेक्स सिनेमा के पोस्टर्स का स्थान ले लेंगे तो आगे उन्हें क्या करना है। 
आज 69 की उम्र में परमासिवम ही ऐसे एकमात्र कलाकार हैं तो पुरानी प्रतिमाओं को ठीक कर सकते हैं। दक्षिण भारत में कोलू फेस्टिवल मनाने का रिवाज है, जिसमें दस दिन के लिए प्रतिमाओं को प्रदर्शित किया जाता है। परमासिवम अब पूरे साल उन प्रतिमाओं को ठीक करने में बिताते हैं, जिनके रंग फीके पड़ गए हैं या शरीर का कोई अंग भंग हो गया है। वे मिट्टी और अन्य सामान से इसे ठीक कर देते हैं। अगर आप मायलापुर की सड़कों से गुजरेंगे तो एक बुजुर्ग व्यक्ति पुरानी प्रतिमाओं को ठीक करता मिल जाएगा। आवाज देने पर भी वे सिर उठाकर नहीं देखेंगे। उनका जीवन अच्छा चल रहा है, क्योंकि उन्होंने अपने स्किल को दूसरी दिशा में मोड़ दिया।
स्टोरी 2: बिहार की सुलोचना दास ने परम्परागत मधुबनी कला मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव में अपनी एक अशिक्षित चाची से सीखी थी या संभवत: गरीबी के कारण उन्होंने मजबूरी में इसे सीखा। परिवार इस सोच-विचार में लगा रहता था कि किस तरह चूल्हा जलता रहे। इसलिए सभी ने इसे सीखने का फैसला कर लिया था, ताकि कुछ पैसा कमाया जा सके, भले ही यह बहुत कम ही क्यों हो। तीन बच्चों की मां 43 साल की सुलोचना को इस कला ने बड़ा आर्थिक सहयोग दिया है। गाय के गोबर से प्लास्टर की गई दीवारों पर ड्राइंग पैटर्न बनाने से उन्होंने इस काम की शुरुआत की थी। पहला पेमेंट उन्हें मिला था- मात्र 50 पैसे का। इसके बाद फिर कभी उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। 1990 के दशक के शुरुआती दिनों में उन्होंने धीरे-धीरे लकड़ी की टहनियों और ग्रीटिंग कार्डस पर पेंटिंग शुरू की। आज वे कैनवस पर, कागज पर, दीवारों पर पेंट करती हैं। सबसे ज्यादा वे फेब्रिक्स पर पेंट करती हैं, साड़ी पर इस तरह की कला को पसंद करने वालों के बीच उनके काम की काफी मांग है। मधुबनी कला में शादी, सामाजिक कार्यक्रम, दर्शन, आध्यात्म जैसे कई विषयों को उकेरा जाता है, इसलिए सुलोचना के पास काम की कोई कमी नहीं होती। बिहार के दरभंगा से वे चेन्नई गईं, जहां उनके काम को काफी सराहा गया और उनकी कला को कई खरीददार भी मिले।   
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com


साभार: भास्कर समाचार 
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