Friday, January 20, 2017

मैनेजमेंट: संघर्षों का सामना कर बच्चे मजबूत बन जाएंगे

मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
गुरुवार को सुबह व्यस्त मुंबई इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर धीरे-धीरे पैदल आगे बढ़ रहे यात्रियों का ध्यान एक बच्चे ने खींचा। ट्रॉली से उसका नियंत्रण छूट गया और वह खड़ी कार से जा टकराई। बच्चा और उसका परिवार तीसरी
टैक्सी लेन से उतरा था और प्राइवेट कार वीआईपी कार के लिए बनी लेन से एंट्री गेट की ओर बढ़ रहा था। दुर्घटना इसलिए हुई, क्योंकि पेरेंट्स वॉट्स एप मैसेजेस के जवाब देने में बिजी थे। बच्चा गिर गया और चिल्लाया जैसे कार उसके ऊपर रही हो। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। हालांकि, कॉन्क्रीट की सड़क के कारण उसके पैरों में हल्की चोट आई थी। मां ने पूरा फर्स्ट एड किट निकाल लिया और एंटी सेप्टिक मेडिसिन लगाने से पहले उसके हाथों और पैरों को साफ करने लगी। उसे सबसे महंगा वाला मिनरल वॉटर पिलाया। कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता था कि बच्चा पेरेंट्स का ध्यान अपनी गलती से हटाने के लिए चोट दिखाकर चिल्ला रहा था। शार्ट टैम्पर्ड पेरेंट्स इस हरकत को समझ नहीं पाए और कार ड्राइवर पर दोष मढ़ने लगे। वहां से गुजर रहे एक बुजुर्ग बच्चे के सामने झुके और शांति से कड़ी आवाज में कहा पुलिस रही, आपको ले जाएगी, क्योंकि आपने एयरपोर्ट ग्राउंड तोड़ दिया है, इसलिए चुपचाप रहो। देखो आपने ग्राउंड को किस बुरी तरह तोड़ दिया है और आप इस हल्की सी खरोंच पर हंगामा कर रहे हो? बच्चे ने तुरंत अपना मुंह बंद किया और चुपचाप पेरेंट्स के पीछे चूहों की तरह जाकर छिप गया। मां ने एक बड़ी-सी इम्पोर्टेड अमेरिकी कैंडी बैग में से निकाली और 10 साल का बच्चा उसे एक नवजात की तरह चूसने लगा। इसने मुझे अपने स्कूल के दिनों की याद ताजा करवा दी, जब हम किराये से आधे घंटे के लिए मिलने वाली बिगड़ी हुई साइकिलें लेकर चलाना सीखते थे। कई बार हम गिर जाते थे और सादे पानी से चोट धोकर फिर साइकिल चलाना शुरू कर देते। तब हम बस, स्टेशनों और रेलवे स्टेशनों के बारे में ही सुनते थे, क्योंकि तब गरीबी के दिनों में एयपोर्ट तो कम ही सुना नाम था। अधिकतर नाश्ते में कटे हुए आम और बेर ही होते थे और कभी-कभी इन पर मिर्च पावडर डला होता था। एयरपोर्ट पर एंट्री गेट पर पिता ने उसे एक महंगा-सा खिलौना उपहार में ला दिया, जो उसके अच्छे व्यवहार के लिए था! और उसकी उम्र में हम लोग कोटा-टाइल्स में अपने ही गेम बनाया करते थे। जो उन दिनों प्लेटफार्म नंबर एक पर होते थे। इस पर हम स्कूल से लाए गए चॉक के टुकड़ों से स्क्वेयर बनाया करते थे। मुझे अजीब दिखने वाली चीजें इकट्ठा करने का शौक था। यह हॉबी मुझे सिर्फ यात्रा के दिनों में ही याद आती। किसी नए फूड को ट्राय करने में जब गला जलता तो मैं नजदीक के पानी के नल की ओर दौड़ता और सीधे पानी पी लेता। अपना बचा हुआ खाना मैं चुपचाप आवारा कुत्तों को खिला देता। कुछ अपनी गुर्राहट से मुझे डराते तो कुछ अपनी दुम हिलाने लगते और मुझे तब तक देखते रहते जब तक कि मेरी ट्रेन प्लेटफार्म से रवाना नहीं हो जाती। 
मेरे फुर्सत के क्षणों पर कभी नज़र नहीं रखी जाती और यात्राओं के दौरान मुझे पहले से कोई निर्देश नहीं दिए जाते थे। मेरे दोस्तों से कभी पूछताछ नहीं होती। मेरे अजीब शौकों पर शायद ही कभी सवाल किए गए हों। भोजन के मेरे प्रयोगों को हमेशा हल्के में लिया गया और यह सब हुआ मेरे पेरेंट्स के नज़रिये से। बहुत ज्यादा चिंता और सक्रियता दिखाते हुए भी उन्होंने हम बच्चों में लचीलेपन और निडरता के बीज बोए। अच्छा पेरेंट बनने की इच्छा में हम अपनी नई पीढ़ी की नई और बदलती परिस्थिति को संभालने की क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। 
फंडा यह है कि जैसे कैटरपिलर का संघर्ष उसे बटरफ्लाई बनाता है, हमारे बच्चे भी जीवन के संघर्षों का सामना करके शक्तिशाली हो जाएंगे। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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