Saturday, November 5, 2016

मानवीय काम दिन को बना देते हैं खुशनुमा

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
गुरुवार को सुबह के 8.05 बजे थे। मेरी मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट 9डब्ल्यू 301 पिछले सवा घंटे से आकाश में थी। पटना में बिहार फूड सप्लाई कॉर्पोरेशन में नव-नियुक्त 300 एमबीए अधिकारियों को मुझे संबोधित करना था। पायलट्स की कमी के कारण दिल्ली की कुछ फ्लाइट रद्‌द हो चुकी थीं, इसलिए मुझे बाद वाली फ्लाइट से जाना पड़ रहा था। दिल्ली से पटना की मेरी यात्रा पहले ही खतरे में पड़ चुकी थी। मैंने नए सिरे से अलग-अलग एयरलाइंस से बुकिंग कराई थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मैं कार्यक्रम के लिए सिर्फ 10 मिनट पहले ही किसी तरह पहुंच पा रहा था। मेरी पास बहुत कम मार्जिन था। फ्लाइट रद्‌द होने से मुंबई एयरपोर्ट पर हंगामे की स्थिति थी। फिर टिकटों की कीमतें अचानक बढ़ने से भी लोग नाराज थे। मुंबई एयरपोर्ट का दृश्य देखकर मुझे लग रहा था कि आप जितने बड़े शहर में रहते हैं, उतने ही ज्यादा स्वार्थी हो जाते हैं। इनमें एयरलाइंस भी शामिल हैं। 
कुछ यात्रियों ने एयरपोर्ट पर मुफ्त उपलब्ध अखबारों में से कई उठा लिए और अपने बैग्स में रख लिए। उन्हें लग रहा था कि दिल्ली में फ्लाइट और लेट हो सकती है, क्योंकि मौसम खराब है। ऐसा करते समय उन्हें इस बात का खयाल नहीं था कि इस तरह वे साथी यात्रियों से अखबार पढ़ने की सुविधा छीन रहे हैं। इससे ज्यादा दिलचस्प बात यह थी कि जिन लोगों ने चार-पांच अखबार उठाए थे, वे सीट पॉकेट में इन्हें रखकर सो रहे थे। इस तरह उन अखबारों का उपयोग नहीं हो पा रहा था। जब मैं अपने बड़े दिल वाले शहर के इस स्वार्थ को देख रहा था, तभी फ्लाइट कैप्टन ने घोषणा की, 'मौसम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार राजधानी दिल्ली में तापमान 17 डिग्री है और दृश्यता (विजिबिलिटी) का स्तर 100 मीटर है। इसकी जानकारी मैं एक बार फिर दूंगा, जब हम टी 2 एयरपोर्ट के नज़दीक पहुंच जाएंगे।' यह सूचना मिलते ही मैं अपनी सीट पर पसर गया, क्योंकि मैं अच्छी तरह समझ गया था कि अब मैं फिर से बुक की गई आगे की फ्लाइट नहीं ले पाऊंगा, जिसके लिए मुझे टी1 एयरपोर्ट तक जाना था। एक टर्मिनल से दूसरे तक जाने में कम से कम 15 मिनट का समय लगता है। 
9.15 बजे फ्लाइट जब उतरी तो दृश्यता 600 मीटर थी और मैं दूसरे टर्मिनल जाने के लिए कैब लेने दौड़ा। सड़क पर दृश्यता 10 मीटर थी। गैर-मौसमी धुंध ने पूरी दिल्ली को घेर लिया था। इसे पिछले 17 साल की सबसे खराब धुंध माना गया। इसने प्रदूषण के स्तर को दिवाली की रात से भी ज्यादा खराब कर दिया। टर्मिनल की इमारत में हालत बस स्टैंड से भी ज्यादा खराब हो रहे थे। प्रदूषण से छोटे बच्चों की सांस तेज चल रही थी। सीनियर सिटीजन कफ का शिकार हो गए थे। जो लोग लगातार 30 मिनट तक इस धुंध में रहे उन्हें सांस छोटी होने की शिकायत होने लगी थी। कुछ लोगों की आंखें सूख रही थी तो कुछ का गला। फ्लाइट लेने के लिए यमुना नदी एक्सप्रेस-वे से होकर पहुंचे यात्रियों को उबकाई और उल्टी की शिकायत हो रही थी। इस बीच भीड़ में मैंने अचानक एक मसीहा देखा। उसने अपने हाथ का बैग खोला और फेस मास्क बांटने लगा। यह मास्क उनके पटना के निजी अस्पताल के लिए बने थे। वे बच्चों को और बूढ़ों को मास्क दे रहे थे और उनसे इन्हें पहनने को कह रहे थे, क्योंकि धुंध के छोटे सघन कणों से श्वास संबंधी इनफेक्शन हो सकता है और फेफड़ों को भी स्थायी नुकसान हो सकता है। माताओं और बुजुर्गों ने मुस्कुराहट के साथ इसे स्वीकार किया। और कुछ लोगों ने इस नेकी के लिए उन्हें गले भी लगाया। इस दृश्य ने सुबह की बुरी यादों को मिटा दिया। मेरा दिन हैप्पी एंडिंग की ओर बढ़ने लगा। 

फंडा यह है कि अगर आप चाहते हैं कि आपका दिन खुशनुमा अहसास पर खत्म हो तो इंसानियत का एक काम देखिए या खुद कीजिए। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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