Thursday, November 3, 2016

कानून और अधिकार: उपचारमें लापरवाही और मरीजों के अधिकार

नंदिता झा (हाईकोर्ट एडवोकेट, नई दिल्ली)
मेडिकल लापरवाही के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अहम निर्देश दिए हैं। अब अस्पताल अपने यहां के डॉक्टर कर्मचारियों की लापरवाही के लिए जिम्मेदार होगा। देश में अस्पतालों में लापरवाही के कई मामलों की शिकायत
ही नहीं हो पाती है। जानिए मरीज किस फोरम पर शिकायत कर सकते हैं और उनके अधिकार- 
हाल ही में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल को मेडिकल लापरवाही बरतने के कारण एक प्रीमैच्योर बेबी की मृत्यु का दोषी पाया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। मामला 12 साल पहले का था। आयोग के इस फैसले की खास बात यह है कि इसमें यह तय हुआ कि 'भले ही सरकारी अस्पताल फ्री सर्विस या ट्रीटमेंट दे रहा हो तो भी इसकी सेवा प्राप्त करने वाला इसका उपभोक्ता ही है। 
यह मामला 2004 का है। इसमें एक व्यक्ति अपनी गर्भवती पत्नी को इलाज के लिए सर्वोदय अस्पताल ट्रॉमा सेंटर लेकर गया। वहां महिला ने बच्चे को प्रीमैच्योर जन्म दिया। चूंकि उस निजी अस्पताल में आईसीयू नहीं था, इसलिए उस नवजात को सफदरजंग के आईसीयू में भेजा। यहां बच्चे की मृत्यु हो गई। 
स्टेट कमीशन ने इस केस में मेडिकल लापरवाही के लिए सर्वोदय अस्पताल को जिम्मेदार माना और उसे दो लाख का मुआवजा देने के लिए कहा। लेकिन चूंकि सफदरजंग अस्पताल ने अपनी सेवाएं मुफ्त दी थी, इसलिए उसके कार्य को 'सेवा' माना और सर्वोदय अस्पताल को दोषी माना। 
सर्वोदय अस्पताल ने राष्ट्रीय आयोग में 'रिविजन याचिका' लगाई। जहां सफदरजंग अस्पताल ने अच्छी और उन्नत सेवा मुफ्त में देने की बात कही। दोष सर्वोदय अस्पताल पर मढ़ा क्योंकि बच्चा वहीं पैदा हुआ था और वहीं के इंफेक्शन के कारण उसे बचाया नहीं जा सका। 
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने स्टेट कमीशन के फैसले को नहीं माना तथा सफदरजंग अस्पताल को 2 लाख रुपए का मुआवजा देने को कहा। आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे ही फैसले के आधार पर यह निर्णय दिया। इसका मतलब यह कि सरकारी अस्पताल भले ही मुफ्त सेवा दे रहे हों पर उपभोक्ता को अच्छी सेवा देने को बाध्य हैं और लापरवाही होने से मुआवजा देने में जिम्मेवार होंगे। 
एक अन्य घटना में नवजात शिशु के इलाज करने के दौरान डॉक्टरों की लापरवाही से, हमेशा के लिए बच्चे की आंख की रोशनी चली गई। इस मामले में बतौर हर्जाना पीड़ित परिवार को 64 लाख रुपए भुगतान देने का आदेश किया गया। यह सही है कि किसी व्यक्ति की स्थायी शारीरिक क्षति या मृत्यु की कोई कीमत तय नहीं की जा सकती। पर यह परिवार को तत्काल राहत जरूर देता है और डॉक्टर और अस्पताल को सख्त निर्देष और चेतावनी देता है। 
चिकित्सकों की लापरवाही के मामले सामने आते हैं। कई बार मरीज का बड़ा नुकसान हो जाता है, कई बार मौत हो जाती है। लापरवाही की शिकायतें बहुत कम दर्ज होती है, लेकिन जरा भी संदेह हो तो परिजन उपभोक्ता सुरक्षा कानून का सहारा ले सकते हैं। भारतीय मेडिकल संगठन बनाम वीपी शांता (1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि मेडिकल व्यवसाय उपभोक्ता कानून के अंतर्गत 'सेवा' ही है। पहले सरकारी अस्पतालों की लापरवाही से संबंधित दावे दीवानी अदालतों में ही जाते थे। भारत में विभिन्न उपभोक्ता अदालतें हैं। सर्वप्रथम जिला फोरम है, जहां 5 लाख रुपए तक के दावे डाले जा सकते हैं। इसके बाद राज्य आयोग, यहां 5 लाख से 20 लाख रुपए तक के दावे डाले जाते हैं। इसके ऊपर राष्ट्रीय आयोग है। यहां 20 लाख रुपए से ऊपर के दावे आते हैं तथा राज्य आयोग के फैसलों के विरुद्ध अपील भी डाली जाती है। इन उपभोक्ता अदालतों में मरीज स्वयं या उसके परिजन या एजेंट दावा करते हैं। 
शिकायत दर्ज कराने के लिए कोई शुल्क जमा करने की बाध्यता नहीं है। डाक से भी शिकायतें भिजवाई जाती है। क्षति के अनुमान लगाने के कुछ उपाय हैं। वित्तीय और गैर-वित्तीय नुकसान का वर्गीकरण होता है। 
मरीजों को भी अनेक अधिकार प्राप्त हैं जैसे- 
  • स्वास्थ्य सावधानी तथा मानव उपचार का अधिकार, हर मरीज का इलाज सावधानी, मर्यादा एवं इज्जत से हो। 
  • सभी दवाओं को देखकर देना जरूरी। 
  • हर मरीज को आपातकालीन इलाज अवश्य मिले। 
  • मरीज को मेडिकल रिकर्ड लेने का अधिकार। 
  • फैक्ट धारा304 (ख) के मुताबिक डॉक्टरों को लापरवाही के कारण मौत हो जाने के लिए आपराधिक तौर पर जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। 

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साभार: भास्कर समाचार 
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