Sunday, November 27, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: जीवन में कुछ चीजें बिजनेस नहीं होतीं

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
नोटबंदी के दो दिन बाद मध्यप्रदेश के इंदौर शहर की निजी यात्रा में मेरी मुलाकात स्कूल कंसल्टेंट निर्मल भटनागर से हुई, जो हमेशा किस्से सुनाकर बताते थे कि स्कूल फीस इकट्‌ठा करना कितना कठिन है। यह कठिनाई कम से कम 70 फीसदी ग्रामीण पालकों के साथ है। उन्होंने बताया कि जब वे फीस इकट्‌ठी करने के
लिए किसी शिक्षक को भेजते हैं तो कितने असहज हो जाते हैं। शिक्षकों से इसलिए अनुरोध किया जाता है, क्योंकि पालकों के मन में अब भी उनके प्रति बहुत सम्मान है और जब वे बकाया फीस मांगते हैं तो उन्हें इनकार करना पालकों के लिए कठिन होता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि उस दिन ज्यादातर स्कूलों में शत-प्रतिशत फीस वसूली रिकॉर्ड हुई। स्वाभाविक रूप से सारी फीस चलन से बाहर किए नोटों में दी गई थी। 
उनके शब्द मुझे अपने स्कूली दिनों में ले गए। नागपुर के सरस्वती विद्यालय की मेरी प्रिंसिपल आरडी स्वामी एक बार अपने कैबिन में एक पालक पर फीस भरने के कारण बरस रही थीं। मैं वहां से गुजर रहा था और कुछ पल यह जानने के लिए रुका कि सुबह-सुबह किसे डोज़ दिया जा रहा है। संभव है मेरा रिपोर्टर डीएनए तब से ही मौजूद था। किंतु मैं उनकी घूरती आंखों से बच नहीं सका। उनके कक्ष के बाहर लगे परदे से मेरा शरीर तो छिप गया था, लेकिन नीचे से मेरे छोटे पैर उन्हें नज़र गए। उन्होंने तत्काल मुझे बुला लिया। मैं डर गया और भीतर अक्षरश: कांपता हुआ गया। उन्होंने अपने पर्स से 5 रुपए निकाले और मुझे देते हुए कहा कि बच्चे को साथ लेकर जाओ और इसकी दो माह की फीस भर दो। ध्यान रहे कि उन दिनों टेलीफोन नहीं हुआ करता था। मैंने उस लड़के को वहां से बाहर खींचा और उसे पिता को वहां हमारी कड़क प्रिंसिपल से शेष नसीहतें लेने के लिए छोड़ दिया। हम कैश काउंटर की ओर दौड़ पड़े। 
एक माह बाद स्कूल परिसर के बाहर फिर उस लड़के और उसके पिता से मिला, जिन्हें प्रिंसिपल को फीस का पैसा लौटाने के लिए मेरी मदद चाहिए थी, क्योंकि उनके पिता कुछ संकोच महसूस कर रहे थे। मैं कभी उस पिता की आंखों के भाव नहीं भूल सकता, जिनमें प्रिंसिपल के कड़े स्वभाव के लिए भय था और उनकी सहानुभूति और मानवीयता के लिए गहरा आदर। मैं उस लड़के को साथ लेकर गया और प्रिंसिपल को पैसे लौटा दिए। स्वामी टीचर, जैसा कि हम उन्हें उन दिनों कहते थे, ने मुझसे पैसे लिए और उनके कठोर चेहरे पर दस फीसदी मुस्कान आई। उनका दाहिना हाथ, जिसमें हमेशा स्कैल हुआ करती थी, बच्चे के सिर पर गया कुछ सेकंड उसे सहलाता रहा। बिना एक शब्द कहे। मैं तो निर्विकार खड़ा था पर मेरे दोस्त की आंखों में आंसू गए, क्योंकि वे हाल ही में आर्थिक संकट से गुजरे थे और प्रिंसिपल ने उन्हें बचा लिया था। उन्होंने मुझे कहा, 'इसे कक्षा में ले जाओ' और फिर तेजी से दूसरी तरफ मुंह घुमा लिया- संभव है उनकी आंखें भी भीग आई हों। तब तक मुझे पता नहीं था कि कड़े स्वभाव के लोगों का दिल इतना कोमल होता है। 
अब तेजी से आगे 2016 में आते हैं। मैंने कल सुना कि बेंगलुरू के मगादी रोड स्थित 25 साल पुराने वीईएस मॉडल कॉन्वेंट स्कूल ने 24 नवंबर को एक सर्कुलर भेजा, जिसमें कहा गया था, 
'प्रिय पालकों, अपने बच्चे की आगे के वर्षों (10वीं कक्षा तक) की फीस भरने का अच्छा मौका है। पालक फीस का भुगतान कर डिस्काउंट भी पा सकते हैं। यह ऑफर सीमित समय के लिए है। (500 और 1000 रुपए के पुराने नोट स्वीकार किए जाएंगे।)' प्रबंधन। 
स्कूल द्वारा 'डिस्काउंट' और 'ऑफर' जैसे शब्दों के इस्तेमाल ने मुझे दु:खी कर दिया। हालांकि, यह कदम पालकों को नकदी के संकट से बचाने के लिए था। पालकों को पुराने नोटों में भुगतान की अनुमति देने से यह कदम एक अलग ही स्तर पर पहुंच गया, जिसकी वैधता शायद संदेह के घेरे में हो। 
फंडा यह है कि जिंदगी में अब भी कुछ चीजें ऐसी हैं, जो बिज़नेस नहीं है और शिक्षा निश्चित ही उनमें से एक है। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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