Tuesday, October 18, 2016

किसी भी तथ्य के दोनों पहलू देखकर ही टिप्पणी करें

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
कुल 12 शिक्षकों के उस स्कूल में केवल तीन शिक्षक थे जिन पर स्कूल निरीक्षक सारे छात्रों के सामने चिल्ला रहे थे। इन योग्य शिक्षकों ने खुद को मेहनतकशों के इन 166 बच्चों के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था,
जिनके पास पढ़ने जाने की और कोई जगह नहीं थी। स्थानीय स्वशासन का यह स्कूल मुख्य रूप से निर्धनतम तबके के बच्चों को आधारभूत कौशल सिखाता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इसके साथ वह उन्हें मूलभूत शिक्षा तो देता ही है ताकि इस शांत हिल स्टेशन के लिए भविष्य के अच्छे नागरिक निर्मित किए जा सके। 
इंस्पेक्टर: आज के मध्याह्न भोजन के लिए कितने छात्रों के लिए खिचड़ी पकाई? प्रिंसिपल से लेकर अकाउंटेन्ट तक की भूमिका निभाने वाले शिक्षक ने धीमी आवाज में कहा, 'सारे बच्चों के लिए।' 
इंस्पेक्टर: इसका क्या मतलब है? आप खुद को गणित के शिक्षक बताते हैं और आंकड़े भी नहीं बता पाते?, उन्होंने चीखकर पूछा। 
शिक्षक ने और भी धीमी आवाज में जवाब दिया, '166' 
इंस्पेक्टर: क्या? मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। आज सुबह आपने भोजन नहीं किया क्या? आप फिर दोहराएंगे?
शिक्षक ने धीरे से सिर उठाया और स्पष्ट रूप से दोहराया, '166' 
इंस्पेक्टर: (टेबल पर जोर से रजिस्टर पटकते हुए), 'जब इस हाजिरी रजिस्टर में सिर्फ 103 छात्र हैं तो आप 166 कैसे बता रहे हैं? आपके राशन भंडार के रजिस्टर में दर्ज है कि आपने 166 बच्चों के लिए चावल निकाले, जबकि खाने वाले सिर्फ 103 बच्चे हैं। इसका मतलब है श्री गणित महोदय कि आप तीनों अपनी हरकतों से बच्चों को चोरी धोखेबाजी सिखाकर परोक्ष रूप से परिवार के सदस्यों के पेट भर रहे हैं।' इंस्पेक्टर बोलते चले गए। शिक्षकों पर ये आरोप सुनकर बच्चों को बुरा लगा, क्योंकि उन्हें पता था कि इन शिक्षकों के परिवार ही नहीं हैं। 
ईमानदारी ही वह गुण है, जो ये शिक्षक अपने छात्रों को इतने बरसों से सिखा रहे हैं। सुबह की प्रार्थना में एक ही तथ्य दोहराया जाता है कि उनके इस पहाड़ी कस्बे की अर्थव्यवस्था वहां आने वाले पर्यटकों द्वारा खर्च किए पैसे से चलती है। यह उनका कर्तव्य है कि कोई पर्यटक यह भावना लेकर लौटे कि उसके साथ धोखाधड़ी हुई है। उनका नारा ही यह था, 'खुशी खुशी लौटे पर्यटक ही और पर्यटक लाते हैं।'
इस बीच शिक्षक ने सफाई देने की कोशिश की, लेकिन अधिकारी महोदय उन पर और भी जोर से चिल्लाने लगे, 'चुप रहें, आप सब बच्चों के लिए आया राशन चुराते हुए रंगे हाथों पकड़े गए हैं। आपको शर्म आनी चाहिए,' वे रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। 
अचानक 8वीं कक्षा के एक छात्र ने बीच में बोलते हुए कहा, 'सर, बहुत हो गया। हमारे शिक्षक शायद ही कभी रोज के लिए निर्धारित चावल से ज्यादा निकालते हैं। ज्यादातर मसाले और चूल्हे के लिए लकड़ी छात्र स्कूल से लौटते समय इकट्‌ठा करते हैं ताकि खिचड़ी गले से नीचे उतारने लायक हो जाए। जब स्कूल में सारे बच्चे होते हैं तो ज्यादातर मसाले ये शिक्षक अपने घर से लाते हैं। चूंकि यह पर्यटन का मौसम है, इसलिए कुछ बच्चे सड़क के किनारे छोटी-मोटी चीजें बेचने वाले माता-पिता की मदद करने गए हैं। हम बच्चे ही शेष चावल के बदले में नमक, मिर्च और कुछ तेल लेकर आते हैं, क्योंकि सरकार तो चावल के सिवाय कुछ देती नहीं। कृपया शिक्षकों को दोष दें।' बच्चे ने एक ही सांस में सबकुछ कह दिया। अधिकारी चुपचाप स्कूल से चले गए और जाते समय अपनी चाय के पैसे का भुगतान करके गए, क्योंकि उन्हें अहसास हुआ कि इसका भुगतान भी बाद में शिक्षकों को ही करना पड़ेगा। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कोई नकारात्मक टिप्प्णी नहीं की। 
फंडा यह है कि सिक्कों की तरह मानव के भी दो पहलू होते हैं। किसी के बारे में कुछ कहने के पहले हमें दोनों पहलू देख लेने चाहिए। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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