Monday, October 24, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: दीपावली के दीपक जलाए रखने के लिए तेल आवश्यक नहीं

मैनेजमेंट फंडा (एन. रघुरामन)
जब आप दीपावली जैसे त्योहारों के सीज़न में बाजार में जाएं तो वहां भिखारियों की याचना से नहीं बच नहीं सकते। जब वे याचना करते हैं तो कुछ सेकंड के लिए आप विचलित हो जाते हैं, क्योंकि आपके सामने ऐसा कोई
होता है, जो भोजन पाने के लिए संघर्षरत है और आप ऐसी जगह है जहां पर आप पैसे को एक तरह से जलाने के लिए ही खर्च कर रहे हैं। मेरा इशारा पटाखों की तरफ है। यह हमें भीतर तक झकझोर देता है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इससे दुकानदार चिढ़ जाते हैं, जिन्हें त्योहारों के पूरे सीजन में अच्छे बिज़नेस की उम्मीद रहती है। यह टाली जा सकने वाली दुविधा है, जिससे हममें से प्रत्येक गुजरता है। फिर चाहे हम इस देश के किसी भी हिस्से में खरीददार हों या दुकानदार। शायद ही किसी ने इस समस्या का समाधान खोजा हो। लेकिन पुणे के सदाशिव पेठ के शनिपार क्षेत्र में एक दशक से ज्यादा समय से मौसमी व्यवसाय करने वाले स्थानीय स्ट्रीट वेंडर सुरेंद्र गडवे ने इसका उचित समाधान खोजा है। वे पिछले छह दिनों से अपने क्षेत्र में यह समाधान आजमा रहे हैं। इसे खरीददारों दुकानदारों ने ही नहीं, भिखारियों तक ने सराहा है। 
शनिपार सिर्फ रोज की सब्जियों के लिए जाना जाता है बल्कि यह सीज़न की सारी चीजों के मिलने की मुख्य जगह है। हर दुकानदार अपनी दुकान पर ज्यादा से ज्यादा ग्राहक खींचने के लिए लगा रहता है। हालांकि, यह बाजार 20 से ज्यादा भिखारियों का भी गढ़ है, जिनकी संख्या सप्ताहांत में 30 तक पहुंच जाती है। वे सिर्फ चारों तरफ गंदगी फैलाते हैं बल्कि पैसे मांग-मांगकर वहां आने वाले हर व्यक्ति को परेशान कर देते हैं। धमकाने का उन पर कभी कोई असर नहीं होता। भिखारियों से संरक्षण के लिए तो कोई कानून है और पुलिस कोई मदद करती है। किंतु गडवे की तरकीब ने पिछले एक हफ्ते में पूरे क्षेत्र का माहौल ही बदल दिया है। 
चूंकि वे तो थोड़े समय के फेरीवाले हैं इसलिए उन्हें बिज़नेसमैन तो नहीं कहा जा सकता। सीज़न के हिसाब से वे और उनका परिवार प्रोडक्ट बदलते रहते हैं। मसलन, दीपावली के दौरान वे मिट्‌टी के दीपकों को पेंट करके बेचते हैं। जब त्योहार के दिन नज़दीक होते हैं तो ग्राहकों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है और पेंटिग पर ध्यान केंद्रित रखने के साथ ग्राहकों से निपटना आसान नहीं होता। इसका मांग पर भी काफी असर पड़ता है। इस साल मिट्‌टी के दीपकों की मांग तुलनात्मक रूप से ज्यादा है, क्योंकि इस बाजार में चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध का बड़ा शोर है। 
एक हफ्ते पहले गडवे ने एक भिखारी से चिढ़कर पूछा कि क्या वह उनके साथ दीपकों की पेंटिंग का काम कर सकता है, क्योंकि काम बहुत ज्यादा है। आश्चर्य की बात यह रही कि उस भिखारी ने सहमति में सिर हिला दिया। चूंकि थोड़े समय के लिए काम करने वालों को खोजना कठिन होता है, उन्होंने बेकार बैठे अन्य भिखारियों से भी यही करने के लिए कहा। एक भिखारी को गडवे की मदद करते देख, उनमें से ज्यादातर अस्थायी श्रमबल का हिस्सा बनने को तैयार हो गए। इस पुनर्वास जैसी पहल से उन्हें जरूरी मजदूर मिल गए और सड़कों से हटकर भिखारी उत्पादक कार्य में लग गए। फिर आसपास के दुकानदार भी भीख मांगने वालों से पिंड छुड़ाकर खुश हैं। 

आज हर भिखारी रोज 150 रुपए कमा रहा है और बहुत-सा पैसा बचा भी रहा है, क्योंकि उन्हें शराबखोरी पर पैसा खर्च करने का वक्त ही नहीं मिलता, जो अामतौर पर उनकी नियमित आदत रही है। दीपावली के पहले पड़ने वाले अंतिम शनिवार रविवार को गडवे बहुत व्यस्त हैं, क्योंकि उन्हें बहुत अधिक बिज़नेस मिल रहा है। भीख मांग कर गुजारा करना किसे अच्छा लगता है? खुद मेहनत से कमाए पैसे की रौनक उन लोगों के चेहरे भी दीपक की तरह रोशन कर रही है। कमाई के अलावा उन्हें शराबखोरी जैसी अपनी बुरी आदत के नुकसान का भी अहसास हो रहा है, क्योंकि अब तक तो जिंदगी का एक रूटीन था। भीख मांगी और पैसे शाम को शराब में बहा दिए। लेकिन अब बचत करके पैसे जोड़ने का विचार भी उनके मन में आया रहा है। भिखारियों को सिर्फ रोजगार मिला बल्कि उनमें सुधार की दृष्टि पैदा हुई है। 
मदर टेरेसा ने एक बार कहा था कि दीपक को जलता रखने के लिए हमें उसमें तेल डालते रहना पड़ता है यानी अच्छा काम करना और नेकनीयत लगातार इस तरह के काम से आगे बढाने की जरूरत होती है। और गडवे ने एक नया सिद्धांतगढ़ा है कि अच्छे बिज़नेस के लिए तेल डालने की नहीं, थोड़ा परोपकार का उत्साह डालने की जरूरत है। 
फंडा यह है कि दीपावलीके दीपक को जलता रखने के लिए तेल डालने के अलावा भी कई तरीके हैं, जिससे सिर्फ दीपक बल्कि हमारी उम्मीदें भी रोशन होती हैं। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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