Monday, September 12, 2016

अवसर हर आदमी का दरवाजा खटखटाते हैं, बस देर है तो लाभ उठाने की

एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
'साहेब जी/मांजी, कुछ तो दे दो; दो दिन से खाना नहीं खाया।' शायद यह खास पंक्ति तो उसके मुंह से नींद में भी निकलती होगी। यह पांच साल का बच्चा अत्यधिक ट्रैफिक वाले सिग्नल के पास मंडराता रहता था। जिस भी सड़क पर लाल लाइट जलती उसके कोमल कदम उसी तरफ दौड़ पड़ते। कभी-कभी तो कोई तेज रफ्तार दोपहिया वाहन उसे टक्कर मारकर गिरा भी देता। वाहन चालक को इसका दुख होने की बजाय उसके बीच में आने से झुंझलाहट ज्यादा होती। 
वह कुछ खरोंचों के साथ फिर उठता और फिर वही आवाज लगाने लगता, 'हे साहेबजी..' तेज रफ्तार दोपहिया इस तरह से गायब हो जाते जैसे वे भारत-पाक सीमा पार कर रहे हों। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। दोपहिया वाहन को कोसते हुए वह फिर भीख मांगने लगता और जब 'क्वार्टर' खरीदने जितने पैसे मिल जाते तो वह देसी शराब की दुकान की ओर बढ़ जाता, क्वार्टर खरीदता और घर की ओर दौड़ पड़ता। उसकी मां अपना पसंदीदा पेय प्राप्त करके खुश होकर उसे गले लगा लेती और बच्चा लौटकर फिर अगले 'क्वार्टर' की व्यवस्था में लग जाता, क्योंकि उसकी मां को इसके अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए होता था, भोजन भी नहीं। 
मिलिए जयावेल से। एक खानाबदोश परिवार का सदस्य, जो आखिरकार तमिलनाडु में बस गया और भीख को अपनी आमदनी का जरिया बना लिया। पिता शराबखोरी के कारण ही चल बसे थे अौर अब मां को इसकी लत लग गई थी और उसकी चारों बहनें भाई चेन्नई के टी नगर स्थिति इस व्यस्त ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगते हैं। उसने तो कभी अपने बाल कटवाए थे या कभी अपनी कमीज या नेकर बदली थी, क्योंकि उसकी मां का मानना था कि भीख मांगने में सफलता पूरी तरह इस बात पर निर्भर है कि आप अपने दिखावे से कितनी सहानुभूति पैदा करने में कामयाब होते हैं। 
सौभाग्य की बात है कि स्कूल जाने की उम्र के ठीक पहले जयावेल 'सिरागु' ( तमिल में पंख) नाम का गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) चलाने वाली उमा से मिला। वे बाल श्रमिकों का पता लगाकर उन्हें स्कूल जाने में मदद करती हैं। चूंकि जयावेल ऐसे परिवार से था, जिसकी जिंदगी सिर्फ 'खाने-पीने' के आसपास ही घूमती थी, स्कूल के माहौल से जयावेल रोमांचित हो गया और उसे अपने भीख मांगने की जगह से बाहर की दुनिया का परिचय मिला। पहली बार उसे बाल कटाने, जूते-मोजे, टाई, यूनिफॉर्म पहनने, अच्छा भोजन और किताबें पढ़ने का अनुभव मिला, जिससे वह बहुत रोमांचित था। दुर्भाग्य से गरीबी ऐसे बच्चों को अच्छे परिवारों के बच्चों की तुलना में जल्दी परिपक्व बना देती है। 
फिर जयावेल को उसकी मां ने उमा से छिपा दिया अौर भीख मांगने भेज दिया। लेकिन जब भी वह नशे में होती, वह भागकर स्कूल पहुंच जाता। समय गुजरता रहा अौर फिर छोटा भाई भी उसके साथ गया। जयावेल ने घर जाना छोड़ दिया और धीरे-धीरे वह हफ्ते में एक बार सिग्नल पर मां से मिलने जाने लगा। फिर यह मुलाकात महीने में एक बार होने लगी। चाहे मां से मिलने में वह नियमित रहा हो, लेकिन पढ़ाई में उसने कोई कोताही नहीं बरती। पूरी मजबूती से लगा रहा। उसने ख्यात संस्था कैम्ब्रिज से 10वीं पास की और प्रदेश बोर्ड से 12वीं। वह गणित, विज्ञान और अंग्रेजी में होशियार था। उसे पर्यावरण विज्ञान में बेचलर डिग्री के लिए जापान की एशिया पेसिफिक यूनिवर्सिटी से 100 फीसदी स्कॉलरशिप मिली और एक स्विस यूनिवर्सिटी ने उसे विद्युत विज्ञान के अध्ययन के लिए उच्च शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश देने की पेशकश की, लेकिन वह ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग करना चाहता था। 
एनजीओ 'सिरागु' ने उसे शिक्षा लोन देने की पेशकश की अौर इस साल उसने लंदन की ग्लायंद्र यूनिवर्सिटी से कोर्स पूरा कर लिया है। वह ऐसी कार पर शोध में लगा है, जो पेट्रो ईंधन या सौर ऊर्जा की बजाय पहियों के घूमने से पैदा काइनेटिक एनर्जी से चल सके। चूंकि उसका शोध एडवांस्ड स्टेज पर है, इटली की शीर्ष रैंकिंग वाली टोरिनो यूनिवर्सिटी ने उसे पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स के लिए शत-प्रतिशत मदद का प्रस्ताव दिया है। 
अब उसका सपना जल्दी से स्नातकोत्तर पढ़ाई और शोध पूरा करके नौकरी करने और एक मकान की व्यवस्था करने का है ताकि वह अपनी मां को फुटपाथ के माहौल से निकालकर घर की सुरक्षा में ला सके। हाल ही में वह चेन्नई में था और उसने बहुत-सा वक्त अपनी मां के साथ बिताया, जिसे उसकी उपलब्धियों का जरा भी पता नहीं है। 
फंडा यह है कि किसीकी भी जिंदगी हमेशा तकलीफों में नहीं रहती। दुनिया बनाने वाला जिंदगी में चमकने के लिए पर्याप्त मौके देता है। यह तो हम पर हैं कि उनका कितना लाभ ले पाते हैं। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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