Sunday, September 18, 2016

आप भी आसानी से जी सकते हैं 'किताबी' नायकों जैसी आदर्श जिंदगी

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
एक वयस्क की ओर से बच्चे जैसा उत्तर सुनकर मैं आश्चर्य से मुड़कर देखने पर मजबूर हो गया। 'मैं बोर्नविटा लूंगी और यदि यह आपके पास नहीं है तो एक गिलास दूध लूंगी,' वह किसी चिंतित पालक के अनुरोध पर जवाब दे रही थी। उनके एकमात्र बेटे को हाल में प्रवेश लिए नए स्कूल में 10वीं में कोई परेशानी थी और वे शिक्षिका को
घर पर उसे कोचिंग देने के लिए बुला रहे थे। जहां बच्चे ने पढ़ाई के लिए जागते रहने के उद्‌देश्य से कॉफी ली तो, उसकी मदद को आई कोच ने हैल्थ ड्रिंक लिया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। 
पहली नज़र में तो मुझे वह किसी काल्पनिक पात्र की तरह लगी, जो जीवन की उन सारी दुश्वारियों, जिनका सामना हम सब करते हैं, के बावजूद वर्तमान में जी रही थी। आमतौर पर हर किताब या फिल्म के मुख्य पात्र संघर्ष कम करते हैं और खुशनुमा जिंदगी अधिक जीते हैं। यदि वे सबसे खराब संघर्ष से गुजरते भी हैं तो अंत में खुशी उन पर छा जाती है और इसके साथ पाठक या दर्शक प्रसन्नता का स्वाद लेकर उनसे विदा लेता है। यदि आपको लगता है कि ऐसा फिल्मी होना या किताबों वाला प्यार या किताबों वाली जिंदगी हासिल करना कठिन है तो आपको 24 वर्षीय रिया चौकसे से मिलना चाहिए, जो इंदौर स्थित आईटी कंपनी वेल्यू लैब एलएलपी में क्वालिटी एशोरेंस सॉप्टवेयर इंजीनियर है। उसे प्यार से 'छोटू सिंह' कहा जाता है, जो घर पर दौड़-भाग करने वाले लड़के की तरह रही थी। पालकों की किसी बात से उसने कभी इनकार नहीं किया। टेलीफोन या बिजली का बिल भरना हो या वक्त-जरूरत किराने का सामान लाना हो, यह छोटू सिंह की जिम्मेदारी थी। इससे उसमें सड़कों का व्यावहारिक ज्ञान गया और आर्थिक लेन-देन की चतुराई पैदा हो गई। इसके अलावा अच्छे-बुरे की काबिलियत गई वह अलग। पहली बार छोटू ने पिता की कोई बात तब नहीं मानी जब उसने 12वीं की परीक्षा पास कर ली। वह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहती थी तो पिता प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिये सरकारी सेवा में जाने के पक्ष में थे। 
पिता ने उसके कंप्यूटर ग्रेजुएशन के लिए पैसा देने से इनकार कर दिया, जिसे उसने चुनौती के रूप में लिया और स्कूली बच्चों को पढ़ाकर कमाई शुरू कर दी। तुलनात्मक रूप से बेहतर कॉलेज में प्रवेश मिलने के बावजूद उसने दूसरे क्रमांक के श्रेष्ठ कॉलेज को चुना, क्योंकि वहां फीस पहले की तुलना में दो-तिहाई यानी 75 हजार रुपए थी। यहीं उसने बचत का सबक सीखा। कॉलेज के दिनों में उसने बच्चों की ट्यूशन जारी रखी अौर सिर्फ कॉलेज संबंधी अपने खर्च का पैसा जुटाया बल्कि अपने घर की भी कुछ जरूरतें पूरी कीं। अपने असाधारण शैक्षिक प्रदर्शन के बाद वह आईटी कंपनी में चली गई। ओपन कैम्पस भर्ती के जरिये उसे अपनी पहली नौकरी मिली। अपने सपनों की नौकरी हासिल करने के बाद उसने छात्रों को पढ़ाना जारी रखना, लेकिन अब इसका एकमात्र उद्‌देश्य कमाई नहीं बल्कि उनकी मदद करना था। 
एक ऐसे दौर में जब हर युवा सारे काम 24 घंटे में करने के लिए संघर्षरत रहता है, वह ऐसी लड़की है, जो शायद ही कभी समय की कमी की शिकायत करती हो। वह अपने ऑफिस सबसे पहले पहुंचती है, लेकिन अपना दोपहिया वाहन गेट के पास रखती है और दफ्तर के भवन तक पैदल चलकर जाती है ताकि ऑफिस से बाहर निकलने में उसे ज्यादा संघर्ष करना पड़े। उसे अपने दफ्तर में ऐसी युवती के रूप में जाना जाता है, जो हमेशा अपना काम समय से पहले पूरा करती है। स्वास्थ्य को लेकर जागरूक रिया दफ्तर के बाद जिम्नेशियम जाना नहीं भूलती। 
उसमें गहरी धार्मिक आस्था भी है और मुंबई के भगवान गणेश के मंदिर सिद्धी विनायक मंदिर जाने का कोई मौका नहीं छोड़ती। हाल ही में संपन्न गणेशोत्सव के दौरान भी वह वहां जाकर आई। वह आज भी दफ्तर में दूध पीती है, दफ्तर में सारे कामों की जिम्मेदारी लेती है और सहयोगियों द्वारा 'छोटू' नाम से पुकारी जाती है। वह अपनी जिंदगी हवा में उड़ते, चहचहाते पक्षी की तरह जीती है। 
फंडा यह है कि अपनेपर भरोसा करो तो आप किसी की 'किताबी' जिंदगी को अपने लिए साकार कर सकते हैं बशर्ते आपकी नींव यानी फोकस और समय पैसे का प्रबंधन बिल्कुल ठीक हो। 
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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