Friday, September 23, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: अपमान को प्रेरणा बनाना जीने की कला है

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
कोलकाता के 19 साल के कॉलेज छात्र मयंक भरतीया की गलती यह थी कि उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को गंभीरता से लिया। गत 3 अगस्त को मयंक गिरिश पार्क मेट्रो स्टेशन पर चॉकलेट
का रैपर फैकने के लिए कचरापेटी की तलाश करता रहा। उसके स्थान पर अगर कोई और होता तो शायद दाएं-बाएं देखकर चॉकलेट रैपर वहीं छोड़ देता, ताकि रैपर अपना रास्ता खुद तलाश ले। किंतु ईमानदार मयंक ने ऐसा नहीं किया। उसने स्टेशन मास्टर के ऑफिस के बाहर खाली बास्केट देखी, जिसमें कुछ खाली कागज पड़े थे। उसने उसमें चॉकलेट रैपर डाल दिया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। कौन सोच सकता है कि मेट्रो कर्मचारी इस पर नाराज हो सकता है? जैसे ही उसने ऐसा किया तीन-तीन स्टेशन कर्मचारियों ने कहा कि 'उसकी हिम्मत कैसे हुई उनका डस्टबिन इस्तेमाल करने की।' उसने सिर्फ यह जवाब कि वह सिर्फ सामाजिक आचार-व्यवहार का पालन करने की कोशिश कर रहा है, जिसकी प्रधानमंत्री उम्मीद करते हैं। उसका गंभीर अपराध तो यह था कि उसने उन लोगों से सवाल पूछ लिया कि 'क्या स्टेशन पर कहीं पब्लिक डस्टबिन है, जिसमें कचरा डाल सके?' 
इस पर मेट्रो कर्मचारियों ने धमकाया कि अगर बहस की तो 500 रुपए का फाइन लगा देंगे। दो और लोग गए उसे धमकाने के लिए। 'यह डस्टबिन सिर्फ मेट्रो कर्मचारियों के लिए है'- बार-बार ऐसा सुनकर मयंक बिना कुछ कहे वहां से चला गया। कोलकाता मेट्रो ट्रेन 750 वोल्ट के पावर पर चलती है। प्लास्टिक का एक छोटा-सा टुकड़ा भी अगर करंट के तारों से छू जाए तो चिंगारी और गहरा धुआं उठ सकता है। कचरे के कारण कई बार पहले भी सर्विस प्रभावित हो चुकी है। मयंक ने इस घटना से अपमानित महसूस किया और उसनेे मामला कई स्तरों पर उठाया। कहा कि रेलवे को सुरक्षा इंतजाम के पहले डस्टबिन जैसी मूलभूत चीजों का इंतजाम करना चाहिए। इसी तरह की परिस्थिति का सामना कर चुके महाराष्ट्र के लड़कों के एक ग्रुप ने मयंक से विपरीत रास्ता अपनाया। उन्होंने इनोवेटिव गारबेज कलेक्टर बनाया। यह कचरा डालने पर उपहार में चॉकलेट देता है। डेवलपर्स ने इसे 'टैकबिन' नाम दिया है। लोनावला हिल स्टेशन के म्यूनिसिपल काउंसिल के सदस्यों ने इस फैंसी बिन को ले लिया है। स्टेशन पर सात डस्टबिन लगाए जा चुके हैं। इस साल 1 से 5 सितंबर तक चले अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में इस डस्टबिन का उद्‌घाटन हुआ है। 
ये डस्टबिन काउंसिल को मुफ्त दिए गए हैं, जबकि टीम को प्रति बिन 45 हजार रुपए लागत आई है। डस्टबिन के ऊपरी हिस्से में लगे विज्ञापन से रेवेन्यू आएगा। फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों ने ही सबसे पहले विज्ञापन दिए। गणेश जाधव और अभिजीत देओकर दोनों 28 साल के हैं और मुंबई से हैं। इन्होंने सालभर पहले डस्टबिन पर काम शुरू किया था। गणेश मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट हैं और अभिजीत ने होटल मैनेजमेंट में डिग्री ली है। चूंकि दोनों का ही बैकग्राउंड टैक्नोलॉजी का नहीं था, इसलिए प्रोटोटाइप बनाने के लिए अपने साथ सचिन अागाशे को लिया। प्रोटोटाइप मोबाइल फोन एप्लिकेशन पर काम करता है। इसे गूगल मैप, जीपीएस के जरिये खोजा जा सकता है। जैसे ही यूज़र टैकबिन के पास आएगा डस्टबिन पर लगे क्यूआर कोड को मोबाइल एप से स्कैन करने के बाद यूजर को फ्री कूपन मिलेगा। अगर यूजर लकी रहा और कचरे को सैंसर ने डिटेक्ट कर लिया तो उसे फ्री चॉकलेट भी मिल सकता है। चॉकलेट के पीछे की तरफ यूज़र को लकी कोड भी मिलेगा, जिसे एप पर टाइप करने से और भी उत्साहवर्धक पुरस्कार मिल सकते हैं। ठाणे नगर पालिका ने भी इसमें रुचि दिखाई है। 
फंडा यह है कि अपमान से खुद को नुकसान पहुंचाने के स्थान पर इनोवेशन में बदलना जीने की कला है।
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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