Monday, September 26, 2016

बड़ी कहानियों में छिपी छोटी कहानियां देती हैं जीवन के सबक

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
किसी समय हाई स्कूल में अंतरंग मित्र रहे हेमा और प्रीतम ने 35 साल बाद दिल्ली के लोधी गार्डन में मिलने का निश्चय किया, ताकि उनके अलगाव और उन परिस्थितियों के सच की खोज की जा सके, जिनके कारण वे किसी और से विवाह करने पर मजबूर हुए। बरसों पहले दोनों अलग-अलग रास्ते पर क्यों निकल पड़े इसका पता
लगाने के अपने प्रयास में वे मिले और एक-दूसरे के जीवन के बारे में कई चीजें जानीं। जिंदगी की असलियत जानने की इस प्रक्रिया में उन्होंने हंसी-खुशी, उदासी और दुख के पल आपस में साझा किए। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। यह कोई एक और प्रेम कहानी भर नहीं है। कहानी के दोनों पात्रों के रिश्तों की कई परतें हैं। कभी वे प्रेमी, कभी दोस्त और कभी हमराज रहे। इस मुलाकात में यहीं परतें खोली गईं। 
उस बगीचे में सुबह 6:30 बजे लगातार दो दिन की दो मुलाकातों में उन्होंने सारी आपसी गलतफहमियां दूर कर लीं। जब बगीचे में मौजूद सारे लोग जॉगिंग कर रहे थे और लॉफ्टर क्लब की गतिविधियों में ठहाके लगा रहे थे तो इन दोनों ने सिर्फ 90 मिनट में तेजी से 35 साल की जिंदगी जी ली। उन्होंने घटनाओं का विश्लेषण किया और यह समझने की कोशिश की कि उनके अलगाव में किसने खलनायक की भूमिका निभाई थी। 
इस शनिवार शाम मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित एनसीपीए थिएटर में पूरे सभागृह के साथ मैं भी उस नाटक 'मेरा वो मतलब नहीं था' में डूब गया था, जिसमें दो निष्णात कलाकार अनुपम खेर और नीना गुप्ता प्रीतम और हेमा की भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने पात्रों में डूबकर बहुत ही शानदार परफॉर्मेंस दिया। पूरा थिएटर डूबकर यह नाटक देख रहा था। 
इसमें प्रीतम के बुजुर्ग पड़ोसी और मित्र की भूमिका भी थी, जिसे नाटक के लेखक-निर्देशक राकेश बेदी ने निभाया। वे कॉमेडियन हैं और दोनों पात्रों से हर पांच मिनट बाद टाइम पूछने के बहाने शरारत कर उन्हें डिस्टर्ब करते हैं। नाटक की मुख्य थीम में तो दो प्रमुख पात्रों के बीच का बरसों का तनाव था, तो राकेश बेदी उसमें राहत के पल लेकर आते। नाटक में हेमा को प्रीतम बताता है कि कैसे आपसी गलत धारणाओं ने उनके रिश्ते को बर्बाद किया था। कहानी यह है : एक अधेड़ उम्र पिता अपने चार बच्चों के साथ मेट्रो ट्रेन में सवार होता है। जहां पिता तो आंखें मूंदकर बैठे हैं, लेकिन चार बच्चे इतना उधम मचाने लगते हैं कि यात्रियों के लिए परेशानी का कारण बन जाते हैं। जब बच्चों का व्यवहार बर्दाश्त की हद पार कर जाता है तो चिढ़कर एक क्रोधित यात्री उन्हें जगाता है और गैर-जिम्मेदार पिता होने के लिए जमकर लताड़ लगाता है। पिता हाथ जोड़ लेते हैं और आंखों में अांसू भरकर कहने लगते हैं, 'श्रीमान, मुझे क्षमा करें। थोड़ी देर पहले मुझे संदेश मिला है कि इनकी मां- मेरी पत्नी- एक सड़क दुर्घटना में अपने प्राण खो बैठी है। मैं उन्हें अस्पताल ले जा रहा हूं अौर वे इस घटना से वाकिफ नहीं हैं। कृपया उन्हें थोड़ी देर खुश रहने दीजिए, क्योंकि इसके आगे वे इतने प्रसन्न कभी नहीं रह पाएंगे।' स्तब्ध यात्री भीगी आंखों से उन्हें देखने लगे। 
उस चरण पर जब दोनों अपनी जिंदगियों में हुई गलतियों पर चर्चा कर रहे थे, तब राकेश बेदी फिर आकर शरारत करते हैं और पूछते हैं, 'अब समय कितना हुआ है?' उनके लगातार परेशान करने से उत्तेजित हेमा उन पर फट पड़ती है। इसमें राकेश बेदी द्वारा अभिनीत पात्र का दोष नहीं है। उन दोनों का तनाव अभी पिघला नहीं है, इसलिए यह खींज बाहर आती है। तब राकेश बेदी अपनी विनोदी भूमिका से बाहर आकर बताते हैं कि उनकी पत्नी लकवे की मरीज है। वे बताते हैं कि पत्नी शायद ही कभी सो पाती है और उसे लगातार उसकी मौजूदगी की जरूरत होती है। वह सुबह 4 बजे सोती है और 8 बजे तक नहीं उठती। ये चार घंटे वे खुद के लिए बिताते हैं। वे जॉगिंग करके और लॉफ्टर क्लब में शामिल होकर अपनी शारीरिक और मानसिक तंदुरुस्ती का ख्याल रखते हैं। वे भीगी आंखों से कहते हैं, 'कम से कम मुझे तो पत्नी के लिए चुस्त-दुरुस्त रहना ही होगा।' निश्चित ही राकेश बेदी नाटक में अपने हास्य से रिश्तों की उलझन से पैदा हुआ तनाव दूर करके राहत देते हैं, लेकिन मेरे लिए तो यही कहानी और सबक है। 
रविवार सुबह की सैर के दौरान मैं लाफ्टर क्लब के हर सदस्य को देखकर मुस्कराया, अभिवादन मं हाथ हिलाया। शनिवार शाम के बाद से उन्हें देखने का मेरा नज़रिया बदल गया। मैं वाकई नहीं जानता कि वे अद्‌भुत लोग कौन थे, जो अपने बीमार जीवनसाथी की सेवा करने के लिए खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से फिट रख रहे थे। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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