Tuesday, September 20, 2016

दोस्ती की चाह का दुष्परिणाम: आए दिन सिर पर चढ़ता जा रहा पडोसी मुल्क

राजीव सचान 

उड़ी में सेना के ठिकाने पर भीषण हमले के लिए जिस आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद को जिम्मेदार बताया जा रहा है उसके सरगना मसूद अजहर को कायदे से पाकिस्तान की किसी जेल में होना चाहिए था, लेकिन उसे तो नजरबंद तक नहीं किया गया। मसूद की नजरबंदी-गिरफ्तारी की झूठी खबरों के बाद भारत को समझ जाना चाहिए था कि पाकिस्तान सरकार उसके साथ छल कर रही है। पाकिस्तान ने इस छल-कपट की तब एक तरह से पुष्टि भी कर दी थी जब पठानकोट हमले की जांच करने आए उसके दल ने भारत से जाते ही चुप्पी साध ली थी। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। पाकिस्तानी जांच दल के भारत आने के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी-एनआइए को भी वहां जाना था, लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई और भारत ने पाकिस्तान से पूछा तक नहीं कि यह वादाखिलाफी क्यों? यदि भारत ने पाकिस्तान से यह पूछताछ की होती कि मसूद अजहर का क्या हुआ और पाकिस्तानी जांच दल किस नतीजे पर पहुंचा तो शायद उसे यह संदेश गया होता कि भारत पठानकोट हमले को आसानी से नहीं भूलने वाला। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि भारत उसी तरह पठानकोट हमले को भूल गया जैसे उसके पहले गुरुदासपुर हमले को भूला था। बीते हफ्ते भारतीय विदेश सचिव ने मुंबई हमले की सुध लेने की सूचना देते हुए यह बताया कि पाकिस्तान को इस आशय की चिट्ठी भेजी गई है कि वह मुंबई के गुनहगारों के खिलाफ कार्रवाई तेज करे, लेकिन यह चिट्ठी औपचारिकता मात्र ही थी, क्योंकि उसमें पठानकोट हमले के मास्टरमाइंड मसूद अजहर के खिलाफ कार्रवाई की अपेक्षा का जिक्र ही नहीं था। पाकिस्तान शायद यह अच्छे से समझता है कि भारत निंदा-भर्त्सना के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। वैसे भी 26/11 के बाद भारत ने यही किया है।

यह समझ आता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने 26/11 में कोई कार्रवाई न होने के बावजूद पाकिस्तान को एक और मौका देना बेहतर समझा हो, लेकिन एक के बाद एक आतंकी हमलों के बाद तो उन्हें यह समझ जाना चाहिए था कि पाकिस्तान से दोस्ताना रुख की उम्मीद वक्त की बर्बादी है। उनकी लाहौर यात्र को लेकर यह तर्क दिया जा सकता है कि इससे दुनिया को यह सीधा संदेश गया कि भारत तमाम छल के बावजूद पाकिस्तान से संबंध सुधार चाहता है, लेकिन आखिर वह पठानकोट हमले के बाद भी क्यों नहीं चेते? इसी साल जनवरी में पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले की जांच के बहाने पाकिस्तान ने भारत की आंखों में धूल झोंकी, लेकिन भारत सरकार एक तरह से हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही। नि:संदेह इस दौरान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की कड़ी निंदा की जाती रही, लेकिन वह निर्थक ही साबित हुई।

इस पर हैरत नहीं कि उड़ी में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान की कठोर निंदा उपहास का विषय बन गई है। देश यह पूछ रहा है कि आखिर कड़ी निंदा करने के अलावा भारत सरकार और क्या कर रही है? चंद दिनों पहले चीन और लाओस में प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को निशाने पर लेते हुए उस पर आर्थिक पाबंदी की जरूरत जताई थी, लेकिन आखिर ऐसी कोई पहल खुद भारत की ओर से क्यों नहीं की गई? राजनाथ सिंह पाकिस्तान को आतंकी देश बता रहे हैं, लेकिन क्या भारत उसके प्रति वैसा व्यवहार कर रहा है जैसा किसी आतंकी देश के साथ किया जाता है? प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि उड़ी हमले के दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, लेकिन पठानकोट हमले के दोषी को तो बख्श दिया गया। चूंकि इस वक्त देश रोष-आक्रोश से भरा है इसलिए वह पाकिस्तान के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई चाह रहा है। कुछ आम और खास लोगों की ओर से सैन्य विकल्प आजमाने की भी मांग हो रही है, लेकिन एक तो ऐसे विकल्प लंबी तैयारी की मांग करते हैं और दूसरे वे अन्य विकल्प नाकाम रहने पर आजमाए जाते हैं। तथ्य यह है कि भारत ने अभी तक गैर सैन्य विकल्प भी नहीं आजमाए हैं। भारत की ओर से पाकिस्तान को दक्षेस से बेदखल करने या फिर उसके स्थान पर वैकल्पिक संगठन खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं की गई है। इसी तरह पाकिस्तान उच्चायोग का दर्जा घटाने और उसे प्रदान किए गए तरजीही राष्ट्र का दर्जा खत्म करने की पहल भी नहीं हुई। पाकिस्तान से कभी यह भी नहीं कहा गया कि अगर वह आतंकवाद पर लगाम लगाने संबंधी संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों को नहीं मानता तो भारत भी सिंधु नदी जल समझौते पर नए सिरे से विचार को विवश हो सकता है।

कारगिल से लेकर उड़ी तक का इतिहास यही बताता है कि हम पाकिस्तान से बार-बार इसलिए धोखा खाते हैं, क्योंकि हमने एक उम्मीद की शक्ल में यह मुगालता पाल रखा है कि एक न एक दिन हमारा यह पड़ोसी देश दोस्ती की राह पर चल निकलेगा। पाकिस्तान से दोस्ती की चाह इतनी प्रबल है कि हम उससे बातचीत तोड़कर फिर से बात करने लगते हैं। यह दोस्ती की ही लालसा है कि बार-बार ठगे जाने के बावजूद भारत रह-रहकर पाकिस्तान के साथ वार्ता की मेज पर बैठा नजर आता है। आज भले ही राम माधव दांत के बदले जबड़ा चाह रहे हों, लेकिन एक वर्ष पहले इन्हीं दिनों आरएसएस नेता दत्तात्रेय होसबेले महाभारत का हवाला देते हुए कह रहे थे, ‘परिवार में भाइयों के बीच ऐसा होता रहता है.आखिर कौरव और पांडव भी भाई थे।’ हमारे मन मस्तिष्क में यह धारणा कुछ ज्यादा ही घर कर गई लगती है कि आखिरकार पाकिस्तान हमारा अपना ही हिस्सा था और हमारे जैसा ही है।
यह पाकिस्तान से संबंध सुधार में हम होंगे कामयाब की उत्कट अभिलाषा ही रही कि वह आतंकी हमलों के सुबूतों को रद्दी की टोकरी में डालता रहा और फिर भी हम उन्हें बार-बार उसे सौंपते रहे। पाकिस्तान के प्रति दोस्ती की चाह तब मृग मरीचिका बनी हुई है जब वहां के सही सोच वाले एक छोटे से तबके को छोड़कर एक बड़ा हिस्सा ‘हंिदूू’ भारत को कुचल डालना चाहता है। पाकिस्तान ने अपनी मिसाइलों के नाम बर्बर आक्रमणकारियों गोरी, गजनवी, अब्दाली आदि के नाम पर यूं ही नहीं रखे। क्या विडंबना है कि पाकिस्तान अपनी नफरत के वशीभूत है तो भारत उसके प्रति दोस्ती की ललक के? जब तक भारत इस ललक से मुक्ति नहीं पाता तब तक इसमें संदेह है कि वह कड़ी निंदा करने के अलावा और कुछ कर सकेगा। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)

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साभारजागरण समाचार 
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