Thursday, September 1, 2016

बस्ते के बोझ तले दबे बचपन की मासूमियत बचाएं

डॉ. विशेष गुप्ता (बाल कल्याण समिति के प्रमुख एवं समाजशास्त्र के प्रोफेसर)

यह सचमुच हैरत की बात है कि स्कूल जाने वाले मासूम बच्चों को अपने बस्ते का बोझ कम करने को प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र के चंद्रपुर कस्बे के एक विद्यालय के सातवीं कक्षा के दो छात्रों की शिकायत है कि उन्हें सात-आठ किलो वजन तक की किताबें रोजाना अपने घर से पांच किलोमीटर चलकर स्कूल की तीन मंजिल की कक्षा तक ले जानी पड़ती हैं। उन्हांेने अपने बस्ते का बोझ कम करने को लेकर प्रधानाचार्य से भी कहा, लेकिन उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। इन बच्चों की शिकायत पर सारे देश को गौर करना चाहिए, क्योंकि बच्चे सचमुच स्कूली बस्तों के बढ़ते बोझ से त्रस्त हैं। एक समय शिक्षाविदों के साथ-साथ प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में बनी समिति ने शुरुआती कक्षाओं में बच्चों को बस्ते के बोझ से मुक्त करने की सलाह दी थी, क्योंकि बच्चों के कधों पर लादे जाने वाले भारी-भरकम बस्तों के बोझ का उनकी पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता से कोई सीधा संबध नहीं पाया गया था। समिति ने पाया था कि बस्ते का बोझ बच्चे की शिक्षा, समझ और उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहा है। अब तो यह किसी से छिपा ही नहीं कि बस्तों के भारी वजन और होमवर्क के बोझ के चलते बच्चों को कई तरह का शारीरिक-मानसिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है। बाल मनोविज्ञान से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि चार साल से लेकर 12 साल तक की उम्र के बच्चों के व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास होता है। इस अवस्था में बच्चों के विकास के लिए किताबी ज्ञान की तुलना में भावनात्मक सहारे की ज्यादा जरूरत होती है। इसी तरह यह भी सर्वज्ञात तथ्य है कि खेल-खेल में सिखाने की विधि से बच्चों की प्रतिभा अधिक मुखरित होती है। 1कुछ समय पहले कई बड़े महानगरों में ऐसोचैम की ओर से दो हजार बच्चों पर किए गए एक सर्वे से स्पष्ट हुआ था कि पांच से 12 वर्ष के आयु वर्ग के 82 फीसदी बच्चे बहुत भारी स्कूल बैग ढ़ोते हैं। सर्वे ने यह भी साफ किया था कि दस साल से कम उम्र के लगभग 58 फीसदी बच्चे हल्के कमर दर्द के शिकार हैं। हड्डी रोग विशेषज्ञ भी मानते हैं कि बच्चों के लगातार बस्तों के बोझ को सहन करने से उनकी कमर की हड्डी टेढ़ी होने की आशंका रहती है। एक मामले में मानवाधिकार आयोग का भी कहना था कि निचली कक्षाओं के बच्चों के बैग का वजन पौने दो किला और बड़ी कक्षाओं के बच्चों के बैग का वजन साढ़े तीन किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। स्कूली बच्चों की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए ठाणो नगर निगम ने बच्चों के बस्तों का बोझ कम करने की एक पहल की थी। निगम ने अपने अधीन चलने वाले तकरीबन ड़ेढ सौ प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पहली और दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के लिए सभी की डेस्क में एक लॉकर की व्यवस्था की थी ताकि बच्चों को लादने से छुटकारा मिल जाए। इस फैसले के तहत स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चा अपना बस्ता स्कूल में ही रखकर घर खाली हाथ जाने लगा था। एक अहम बात यह रही कि वहां कक्षाओं में पढ़ाई और सीखने की गतिविधियों को आपसी बातचीत पर आधारित बनाए जाने की तैयारी भी की गई। इससे पहले सेंट्रल एडवाइजरी बोडऱ् ऑफ एजूकेशन ने कहा था कि दूसरी क्लास के बच्चों के बस्ते स्कूल में ही रहने चाहिए। इसी तरह केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी साल 2009 में जो दिशा-निर्देश दिए थे उनके अनुसार पहली और दूसरी कक्षा में बस्ते का वजन दो किलोग्राम, तीसरी और चौथी कक्षा के लिए तीन किलोग्राम, पांचवी और छठवीं कक्षा के लिए चार किलोग्राम और सातवीं एवं आठवीं कक्षा के लिए यह वजन छह किलोग्राम रखने की बात थी। शायद ये निर्देश कागजी ही साबित हुए, क्योंकि स्कूली बच्चों के बस्ते का वजन कम होता नहीं दिखता। यह अफसोस की बात रही है कि खुद महाराष्ट्र सरकार उस पहल को आगे नहीं बढ़ा सकी जो ठाणो नगर निगम ने बस्तों का बोझ कम करने के सिलसिले में की थी। यहि महाराष्ट्र सरकार ने इस पहल को अपना लिया होता तो शायद आज अन्य राज्य भी उसका पालन कर रहे होते। आज स्थिति यह है कि देश भर में लाखोंबच्चों को भारी बस्ता ढोना पड़ रहा है। इनमें तमाम वे नामी स्कूल हैं जो कथित तौर पर पठन-पाठन के आधुनिक तरीके अपनाए हुए हैं।1यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि राज्य सरकारें और स्कूलों ने बस्तों के बोझ के मामले में मानव संसाधन विकास मंत्रलय के निर्देशों पर भी ध्यान नहीं दिया। इस मंत्रलय ने 2010-2011 में बस्तों का वजन निर्धारित करने के बारे में दिशा निर्देश दिए थे। हमारे नीति-नियंताओं और साथ ही स्कूल संचालकों को यह समझना होगा कि अगर पहली या दूसरी कक्षा के बच्चों के स्वभाव को समङो बिना उन पर पढ़ाई का बोझ डाल दिया जाएगा तो उनकी स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया बाधित हो जाएगी। बच्चों पर किताबों का यह भार केवल भौतिक ही नहीं होता, बल्कि यह उनके मानसिक विकास को भी अवरुद्ध करता है। स्कूली बस्तों के रूप में पाठ्यक्रम का भारी-भरकम बोझ बच्चों की सहजता से कुछ नवीन सीखने अथवा ग्रहण करने की नैसर्गिक क्षमता को भी समाप्त कर देता है। समस्या यह है कि स्कूल संचालकों के फरमान के आगे बच्चे तमाम किताबें पढ़ने और उन्हें ढोने को बाध्य हैं। अभिभावक भी उन्हें क्रय करने को मजबूर हैं। इसी कारण कभी-कभी स्कूल संचालकों और अभिभावकों के बीच टकराव भी देखने को मिलता है। बच्चों में सीखने की क्षमता के सहज विकास के लिए कम उम्र के बच्चों के साथ बहुत संवेदनशील तरीके से पेश आने की जरूरत है। यह तभी संभव है जब बच्चों की शुरुआती कक्षाओं में उनकी पढ़ाई-लिखाई को बहुत हल्का किया जाए और साथ ही उन्हें खेल-आधारित बनाया जाए। ऐसा न होने पर बच्चों पर अधिक किताबों का बोझ उन्हें तमाम शारीरिक और मानसिक समस्याओं की ओर ले जाएगा। देश और समाज को समय रहते बचपन की मासूमियत बचाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। 

Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभारजागरण समाचार 
For getting Job-alerts and Education News, join our Facebook Group “EMPLOYMENT BULLETIN” by clicking HERE. Please like our Facebook Page HARSAMACHAR for other important updates from each and every field.