Saturday, September 17, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: ईमानदारी चाहिए तो भरोसा करना सीखिए

एन रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु)
स्टोरी 1: यह सिर्फ 15 दिन पुरानी स्टेशनरी दुकान है और बिना किसी गाजे-बाजे के यह शुरू हुई थी। खास बात यह है कि इसमें दुकानदार नहीं है और बचे पैसे लौटाने वाला यहां कोई नहीं होता। इसे नाम दिया गया है- ऑनेस्टी शॉप। खरीददार यहां आते हैं, जो चाहिए हो वह उठाते हैं, साथ लगी मूल्य सूची देखते हैं और वह राशि
कैश बॉक्स में डाल देते हैं, जिसे काफी अच्छी तरह से लॉक किया गया है। यह दुकान झारखंड की राजधानी रांची से ठीक 20 किमी दूर ब्राम्बे में एचएच हाई स्कूल में खोली गई है। इसने अन्य स्कूलों के लिए उदाहरण पेश किया है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। झारखंड एकेडमिक काउंसिल से मान्यता प्राप्त इस स्कूल में प्री-नर्सरी से लेकर कक्षा दस तक 500 से ज्यादा छात्र हैं। ये बच्चे या तो अनाथ हैं या ब्राम्बे के आसपास घरों खेतों में काम करने वाले लोगों के बच्चे हैं। स्कूल में 17 फुल टाइम टीचर हैं। शिक्षा मुफ्त है और खर्च लोग उठाते हैं। 'ब्लेस्ड चाइल्ड' या 'गिफ्ट टीचर' पहल के तहत आप एक छात्र की फीस या टीचर का वेतन दे सकते हैं। 
इसकी शुरुआत स्कूल के डायरेक्टर शादाब हसन (31) ने की है। वे स्थानीय सेंट जेवियर के छात्र रहे हैं और उन्होंने बीआईटी मेसरा से एमबीए किया है। 2010 में स्कूल शुरू करने से पहले उनके पास ऊंचे वेतन वाला अच्छा कॉर्पोरेट जॉब था। चूंकि वे इस सीख के साथ बड़े हुए थे कि ऑनेस्टी इज बेस्ट पॉलिसी तो वे यह जानना चाहते थे कि यह बात स्कूली बच्चों में रही है या नहीं। इसलिए यू ही मिल जाने वाले पैसे के प्रति बच्चों की प्रतिक्रिया जांचने के लिए उन्होंने स्कूल परिसर में कई जगह नोट गिरा दिए। इसमें 500 रुपए के नोट भी शामिल थे, लेकिन हर बच्चे ने रुपए स्कूल के ऑफिस में जमा कर दिए। इसने उन्हें स्कूल में यह दुकान शुरू करने के लिए प्रेरित किया। यह जोखिम नहीं एक तरह से पुरस्कृत करने जैसी पहल है। पहले 15 दिनों में जो सामान बिका कलेक्शन उससे 18 रुपए ज्यादा हुआ। यह दिल छू लेने वाली बात है, क्योंकि एचएच हाईस्कूल कोई फैंसी वेंचर नहीं है। दुकान का विचार उन्हें अपने एक दोस्त से मिला, जिन्होंने बेंगलुरू में इसी तरह की दुकान शुरू की थी। वे इस विचार को अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहते। आने वाले सप्ताह में वे सीबीएसई और आईसीएसई स्कूल्स के प्रिंसिपल्स से मिलने वाले हैं और उनसे इस कॉन्सेप्ट को अपनाने का अनुरोध करेंगे। 
स्टोरी 2: आप में से अगर किसी को इस सिद्धांत पर थोड़ा भी शक हो तो अपने शहर की किसी भी अच्छी पान-सिगरेट की दुकान पर जाकर 15 मिनट देखे, विशेष रूप से लंच के बाद। उन कुछ मिनटों में आप देखेंगे कि कितने ही लोग आते हैं, पूरी आजादी से हाथ जार में डालकर चॉकलेट या आफ्टर मिंट निकाल लेते हैं। वे दुकानदार से मसाला पान बनाने को कहेंगे। कुछ लोग बॉक्स में रखी सिगरेट खुद निकाल लेंगे। इशारों की भाषा में दुकानदार से कहेंगे पेमेंट बाद में और बिना रुपए दिए चले जाएंगे। पान बनाने में व्यस्त दुकानदार भी देख लेगा या सहमति में हाथ हिला देगा। बाद में आप दुकानदार से पूछिए कि बिना हिसाब-किताब रखे वह इतने लोगों को कैसे याद रख लेता है। शायद जवाब आपको चकित कर दे। मैंने जब यही सवाल मुंबई के एक पान वाले से पूछा तो मुझे यह जवाब मिला,' सर, दिन के अंत में जब मैं घर लौटता हूं तो जितना इनवेस्ट किया उससे ज्यादा ही पैसा लेकर जाता हूं। आंखों की शर्म मेरे लिए काम करती है। अधिकतर तो शाम तक मुझे पूरे पैसे मिल जाते हैं। कभी-कभी अगले दिन पर बात जाती है। घाटा होना दुर्लभ है।'
Post published at www.nareshjangra.blogspot.com
साभार: भास्कर समाचार 
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