Sunday, August 21, 2016

लाइफ मैनेजमेंट: कुछ लोगों के लिए 'देना' प्रतिदिन स्नान करने जैसा होता है

एन. रघुरामन (मैनेजमेंट गुरु) 
'भाऊ एक चाय,' नागपुर के शंकर नगर बस स्टाप के ठीक दूसरी तरफ महाराणा प्रताप हाल के बाहर मौजूद चाय वाले से मैंने निर्मल आवाज में कहा। चूंकि यह जगह मेरे स्कूल के ठीक बाहर है, जहां मैं एक दशक से भी ज्यादा समय तक पढ़ा था, इसलिए मैं इससे अच्छी तरह वाकिफ हूं। चाय वाले ने मेरे इस अनुरोध पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो मैंने उसे फिर चाय देने को कहा। मेरी इस कुछ कठोर आवाज का भी कोई असर नहीं हुआ, इसलिए मैंने सोचा कि मैं गलत जगह पर गया हूं और वहां से जाने लगा। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। तभी वहां बस का इंतजार कर रहे एक व्यक्ति ने बताया कि चाय वाला बधिर है और सुन नहीं सकता। मुझे यह सुनकर याद आया कि अरे! यह तो वही गुलाब भाऊ है, जो बीच की छुट्‌टी में शिक्षक कक्ष में सारे शिक्षकों के लिए चाय लाया करते थे। वे तब भी सुन नहीं पाते थे और हम सांकेतिक भाषा में चाय का आर्डर देते थे। चूंकि मैं मॉनिटर था तो कक्षा के बाद मैं प्राय:शिक्षकों की मदद करते हुए उनकी किताबें अन्य सामान उनके कक्ष तक ले जाया करता था। मेरे जैसे कक्षा के मॉनिटर ही चाय वाले को चाय का थोक ऑर्डर देने के लिए संदेशवाहक का काम करते थे। मेरी बारी आमतौर पर हफ्ते में दो बार आया करती थी, जब शिक्षकों में से कोई मुझसे कहता कि सड़क के उस पार जाकर चाय का ऑर्डर देकर आओ। चूंकि ठंड ज्यादा पड़ रही होती तो मुझे भी चाय पीने की इच्छा होती पर आधा कप चाय की कीमत भी मेरे पांच पैसे के बस टिकट की कीमत से एक पैसा ज्यादा थी। अब हम बच्चों में इतनी हिम्मत नहीं थी कि कड़ी ठंड में पैदल घर चले जाएं। गुलाब भाऊ सुबह 5:30 से 5:45 के बीच दुकान खोलते थे, जो शाम 5 बजे तक खुली रहती। उसके बाद तो वे थोक ऑर्डर भी लेने से मना कर देते थे। 
किंतु उन दिनों से उनकी एक अच्छी आदत थी कि जो भी बच्चा ऑर्डर देने आता तो वे उसे आधा ग्लास चाय देते, लेकिन तब जब वह घर लौट रहा होता। चाय के इस प्रलोभन के कारण हमारे जैसे मॉनिटर बच्चे खुद ही शिक्षकों से चाय मंगाने के बारे में पूछते। उनकी दूसरी अच्छी आदत यह थी कि वे ऑर्डर मिलने के बाद ही चाय बनाते। चारों तरफ सरकारी दफ्तर होने से गुलाब भाऊ का धंधा अच्छा चलता था और स्कूल बंद होने के बाद वे दुकान बंद कर देते। हर बार जब वे ताज़ा चाय बनाते तो उसमें से बची हुई चाय वे पड़ोस के मोची या वहां भटक रहे बेरोजगार लोगों को दे देते। 
शुक्रवार को जब मैंने उन्हें चाय का इशारा किया तो वे तुरंत समझ गए और जल्दी से मुझे चाय मिल गई। मैं पत्थर के रूप में पड़ी बेंच पर बैठ गया और चाय का लुत्फ लेने लगा, जो अब 5 रुपए की हो गई थी। तीसरे पत्थर पर बैठे एक व्यक्ति को मैंने मुझे घूरते पाया मुझे लगा कि उसे एक कप चाय चाहिए। इसके पहले कि उठकर मैं एक कप और चाय मंगाता, गुलाब भाऊ ने मेरे लिए बनाई चाय में से बची चाय उस व्यक्ति को दे दी जो भिखारी तो नहीं था, लेकिन उसके पास चाय के पैसे नहीं थे। उस अजनबी ने गुलाब भाऊ के प्रति आभार जताते हुए सिर झुकाया और उन्हें धन्यवाद दिया। मैं खुद को शर्मिंदा महसूस किया कि मैंने पहले क्यों नहीं उस व्यक्ति के लिए चाय मंगाई। मैंने जब उससे एक और कप चाय की पेशकश की तो उसने विनम्रता से कहा,'बहुत हो गया साब,' मुझे कुछ ऐसा सुनाई दिया, 'आप ने पेशकश करने में बहुत देर कर दी!' 
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साभार: भास्कर समाचार 
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