Monday, July 25, 2016

अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की अल्पसंख्यक प्रकृति का सवाल

तुफैल अहमद (निदेशक मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन)

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) का अल्पसंख्यक चरित्र एक बार फिर कानूनी और राजनीतिक परीक्षण के दायरे में आया है। 17 जुलाई को केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार द्वारा पोषित एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देना संभव नहीं है। पूर्व में 11 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू से कहा था कि वह केंद्र सरकार के समक्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले के संबंध में अपना बयान दर्ज कराए जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय कभी भी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं रहा है। यह पोस्ट आप नरेशजाँगङा डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम के सौजन्य से पढ़ रहे हैं। 2005 में हाईकोर्ट के एक जज ने फैसला सुनाया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देना और एएमयू द्वारा मुस्लिमों को पचास फीसद आरक्षण देना असंवैधानिक है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना का अधिकार है। अनुच्छेद 30 (1) कहता है कि सभी अल्पसंख्यकों (चाहें वे धार्मिक हो या भाषाई) को अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार संविधान मुस्लिमों या दूसरे समुदायों को शैक्षणिक संस्थाओं को स्थापित करने और प्रबंधन करने से नहीं रोकता है। एएमयू की स्थापना मुस्लिमों का वैज्ञानिक उत्थान करने वाले एक कॉलेज के रूप में की गई थी। ऐसे अल्पसंख्यक संस्थाओं की फंडिंग स्वयं मुस्लिम समुदायों द्वारा होनी चाहिए, न कि भारतीय शासन द्वारा। सर सैयद अहमद खान ने 1875 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की थी। उसे 1920 में विघटित कर दिया गया और भारतीय संसद के अधिनियम द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में पुन: स्थापित किया गया था। इस प्रकार एएमयू की स्थापना संविधान के प्रावधानों के तहत हुई है। यह ठीक है कि शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना करने का अल्पसंख्यकों को अधिकार देता है, लेकिन ऐसी संस्थाएं अल्पसंख्यक का दर्जा बरकरार नहीं रख सकतीं, यदि उनकी फंडिंग भारतीय शासन द्वारा हो रही हो। भारत एक पंथनिरपेक्ष देश रहा है, ऐसे में एएमयू यदि स्वयं को अल्पसंख्यक संस्थान मानता है तो वह देश के करदाताओं का पैसा नहीं ले सकता है। अनुच्छेद 30 (2) के अनुसार शासन तंत्र अल्पसंख्यक संस्थाओं को सहायता दे सकता है, लेकिन एएमयू का मामला सिर्फ सरकार द्वारा मदद देने भर का नहीं है, बल्कि एक सरकार द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के लिए संस्थान चलाने और उसे फंडिंग करने का है।एएमयू के साथ एक अन्य मामला यह है कि वह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय भी है। इसका अर्थ है कि देश में राष्ट्रीय महत्व के एक संस्थान को धार्मिक मान्यता को पोषित करने, किसी धर्म की शिक्षा को बढ़ावा देने या मुख्य रूप से एक धार्मिक समुदाय के छात्रों को स्वीकारने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अपने छात्रों में राष्ट्रीय एकता का भाव भरना अनिवार्य है और ऐसा तभी हो सकता है जब बिना किसी धार्मिक, क्षेत्रीय या जातीय भेदभाव के एएमयू में भारत के सभी समुदायों और क्षेत्रों के छात्रों को पढ़ने का अवसर मिले। 2004 में एएमयू ने मेडिकल के पाठ्यक्रम में मुस्लिमों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया, जो संविधान का उल्लंघन है, क्योंकि विश्वविद्यालय की स्थापना भारतीय संसद के अधिनियम द्वारा की गई है। ऐसे में यह धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। एएमयू के नेतृत्व को अल्पसंख्यक मनोदशा से बाहर निकलने की जरूरत है। उसे एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा बनाए रखने पर जोर नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे देश के मुस्लिमों में गलत संदेश जाता है कि उनके लिए देश में सिर्फ एक ही विश्वविद्यालय है। जबकि तथ्य यह है कि भारत में मुस्लिमों को भी अन्य समुदायों के नागरिकों के समान ही अपने शैक्षिक उत्थान के लिए देश के अन्य हजारों कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने का अधिकार है। उत्तर भारत खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में एएमयू को एकमात्र विकल्प के रूप में देखने की प्रवृत्ति रही है। यहीं से भारतीय समाजकी मुख्यधारा से उनके बौद्धिक विलगाव का जन्म होता है। यह अलगाव मुस्लिमों के हितों को नुकसान पहुंचाता है। एएमयू परिसर से निकलने वाले इसी बौद्धिक अलगाववाद ने पाकिस्तान के विचार को जन्म दिया था। चिंता की एक बात यह भी है कि पंथनिरपेक्ष भारतीय गणतंत्र के पास इस बात को लेकर स्पष्टता की कमी है कि वह कैसे सभी धर्मो से समान दूरी बरकरार रखे। राजनीतिक बाध्यताओं के कारण भारत की सरकारें इस्लाम और उसकी धार्मिक रूढ़ियों को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को धन मुहैया कराती रही हैं। उदाहरण के रूप में एएमयू में भारत सरकार सुन्नी और शिया की धार्मिक शिक्षा देने वाले धर्मशास्त्र विभाग को फंड मुहैया कराती है। इसके साथ ही कई गैर शैक्षणिक कर्मचारियों की प्रोफेसर रैंक पर नियुक्ति की गई है और वे मुस्लिमों को धार्मिक रूढ़ियों की शिक्षा देने के लिए पंथनिरपेक्ष भारतीय शासन से वेतन ले रहे हैं। जाहिर है भारतीय शासन द्वारा इस विभाग की फंडिंग संविधान की पंथनिरपेक्ष भावना का उल्लंघन है। एएमयू मामले का व्यापक निहितार्थ भी है। भारतीय शासन उन मदरसों को भी फंडिंग करता है जो कि शैक्षणिक संस्थाएं नहीं हैं और मुस्लिमों में धार्मिक रूढ़िवादिता को बढ़ावा देते हैं। इस प्रकार पंथनिरपेक्ष भारतीय शासन मदरसों और धर्मशास्त्र संबंधी विभागों को धन देकर मुस्लिमों की उनके धार्मिक खोह में बनाए रखता है। भारतीय शासन ने मुस्लिम बच्चों को पढ़ाने की भूमिका छोड़ दी है। भारत के मुस्लिम नेतृत्व को एक बात जान लेनी चाहिए कि एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप मुस्लिमों में यहूदी मानसिकता को जन्म देता है और उन्हें देश के दूसरे विश्वविद्यालयों की ओर रुख करने से रोकता है। यह मानसिकता उनमें शिकायत, हार और उत्पीड़न की भावना पैदा करती है। एएमयू के सभी छात्रों में सामाजिक अलगाववाद की भावना उनके विकास और देश के रोजगार बाजार में प्रवेश में बाधक बनती है। राजग सरकार का एएमयू की अल्पसंख्यक प्रकृति का विरोध न सिर्फ संवैधानिक रूप से सही है, बल्कि मुस्लिमों के उत्थान की दृष्टि से भी उचित है। जबकि पूर्व की कांग्रेस सरकारें मुस्लिमों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखती रहीं। मुस्लिमों के भारत की सामाजिक मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जरूरी है कि भारत सरकार सिर्फ एएमयू ही नहीं, बल्कि सरकार द्वारा वित्त पोषित दूसरे विश्वविद्यालयों की मुस्लिमों को देश की मुख्यधारा से काटने की भूमिका का परीक्षण करे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में इस्लाम की शिक्षा देने वाले विभाग धन सरकार द्वारा ग्रहण करते हैं, लेकिन भारत की लोकतांत्रिक बौद्धिक बहस में कुछ भी योगदान नहीं करते हैं। वे सिर्फ मुस्लिमों को धर्म के जाल में उलझाए रखने का काम करते हैं।

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साभारजागरण समाचार 
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