Wednesday, September 30, 2015

प्रेरक प्रसंग: जीत हमेशा भलाई की ही होती है

लेखक: सुदर्शनसिंह चक्र
गीत गोविंद के रचयिता जयदेव का एक नरेश ने बहुत सम्मान किया। धन के लोभ में कुछ डाकू उनके साथ हो लिए। एकांत स्थान देखकर डाकुओं ने उन पर आक्रमण कर उनके हाथ-पैर काट दिए, और तमाम धन छीनकर उन्हें एक कुएं में फेंक दिया। संयोगवश उस कुएं में पानी नहीं था। जयदेव जी की जब चेतना लौटी, तब कुएं में ही वह भगवन्नाम-कीर्तन करने लगे। संयोग से उधर से उसी दिन गौड़ेश्वर राजा लक्ष्मणसेन की सवारी निकली। उन्होंने जयदेव को बाहर निकलवाया, और उनकी विद्वता से प्रभावित होकर उन्हें अपने साथ राजधानी ले आए। नरेश ने उन्हें अपनी पंचरत्नसभा का प्रधान भी बना दिया। हालांकि बहुत पूछने पर भी उन्होंने नरेश को डाकुओं का हुलिया नहीं बताया। एक बार राजमहल में कोई उत्सव था। उसमें आए अतिथियों में वे डाकू भी साधु वेश में आए। जयदेव जी को वहां सर्वाध्यक्ष देखकर डाकुओं के प्राण सूख गए। जयदेव जी ने भी उन्हें पहचान लिया और राजा से बोले, मेरे कुछ पुराने मित्र आए हैं। आप चाहें, तो उन्हें कुछ धन दे सकते हैं। नरेश ने डाकुओं को साधु और जयदेव जी का मित्र समझकर बहुत धन दिया। उन्होंने कुछ सेवक उनके साथ कर दिए, जिससे वे सुरक्षित घर पहुंच सकें। मार्ग में राजसेवकों ने स्वभाववश जयदेव जी से उनका संबंध पूछा। डाकू बोले, हम लोग एक ही राज्य में कर्मचारी थे। जयदेव ने वहां ऐसा कुकर्म किया कि राजा ने उसे प्राणदंड की आज्ञा दी। लेकिन हम लोगों ने दया करके उसे हाथ-पैर कटवाकर जीवित छुड़वा दिया। राजसेवकों को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने थोड़ी कड़ाई बरती, तो डाकुओं ने सच्चाई उगल दी। किंवदंती यह है कि डाकुओं का पाप सृष्टिकर्ता को असह्य हो गया और उसी समय पृथ्वी फटी, तथा सब डाकू उसमें समा गए। 
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साभारअमर उजाला समाचार 

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