Sunday, August 9, 2015

सामाजिक बराबरी का जरिया बने शिक्षा

लेख: अनिल प्रकाश जोशी 
साभार: अमर उजाला समाचार 
आज के सामाजिक सरोकार कितने भी दावे कर ले, पर यह पूरी तरह सच है कि आने वाले समय में हम भटके हुए समाज कहलाएंगे। स्वतंत्रता के 67 साल बाद भी हमने बहुत से मुद्धों को सिरे से नकार रखा है। उनमें एक बहुत बड़ा विषय हमारी शिक्षा प्रणाली का है। अपने देश में शिक्षा के कई स्तर हैं और उसी से पैदा पीढ़ी का व्यवहार व दायित्व उसी अनुसार तय होगा। मसलन यदि आपने किसी तथाकथित प्रतिष्ठित केंद्र से शिक्षा प्राप्त की है, तो आपके भविष्य में चांद सितारे तत्काल जुड़ जाएंगे। इसके लिए आपकी योग्यता कितनी भी हो, पर आपके परिवार की जेब भरी जरूर होनी चाहिए, क्योंकि मोटी फीस का प्रश्न ज्यादा बड़ा होता है। जिस देश की नींव ही मजबूत और धरातली नहीं होगी, उसके भविष्य में प्रश्नचिह्न हमेशा लगा रहेगा। अपने देश में ऐसा ही कुछ है। अब सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा का ही उदाहरण ले लीजिए, तो समझ में आ ही जाएगा कि हमारा भविष्य खास तौर से गांवों का क्या होने वाला है। एक बार खंडहर पड़ी स्कूली भवनों की जर्जर स्थिति को छोड़ भी दें, तो सारी बात शिक्षा की गुणवत्ता पर ढेर हो जाती है। पहले तो शिक्षक प्रायः विद्यालयों से गायब रहते हैं, क्योंकि गांवों में कोई जाना नहीं चाहता। प्राथमिक स्कूल के शिक्षक अब वेतन का रोना नहीं रो सकते, क्योंकि कई वेतन आयोगों की सिफारिशों के बाद उनका वेतन सम्मानजनक हो चुका है। समय आ चुका है कि शिक्षकों के दायित्वों की इनके साथ ही बैठकर समीक्षा होनी चाहिए, क्योंकि इनकी ईमानदार भागीदारी पर प्राथमिक शिक्षा टिकी हुई है। दूसरी चुनौती तेजी से गांवों में खुलते निजी स्कूल हैं, जिसके कारण सरकारी प्राथमिक विद्यालय का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। कम दाखिले के कारण सरकारी स्कूल बंद तक करने पड़ रहे हैं। निजी स्कूलों का रुख करने की एक वजह अंग्रेजी शिक्षा की चाहत भी है। स्थिति यह है कि प्राथमिक स्कूलों के शिक्षक तक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते। माध्यमिक शिक्षा का भी कमोबेश यही हाल है। पसंदीदा स्कूलों में दाखिले के लिए मारकाट मची हुई है। महंगे निजी या पब्लिक स्कूल और सरकारी स्कूलों के बीच का अंतर बताता है कि किस तरह दो समाज बन रहे हैं। इसकी वजह है कि अनेक महंगे स्कूलों में घुड़सवारी और तैराकी जैसी अध्ययनेतर गतिविधियां भी होती हैं। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को पढाने का बोझ ही बीमार कर देता है, दूसरी अन्य बातों के लिए उसके पास तो समय ही नहीं बचता। असल में हमने अपने सरकारी विद्यालयों के हर स्तर को कमजोर बना रखा है। अब जब देश में नीतिकारों व बड़े सरकारी पदों मे बैठे लोगो के बच्चे अलग स्तर की शिक्षा के लिए लालायित रहते हों, तो सरकारी स्कूलों के हालात की चिंता कौन करेगा? एक बड़ी आवश्यकता यह है कि एक ऐसा ही अधिनियम बन जाए कि राजनीतिक और सरकारी पदों में बैठे लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही शिक्षा लेंगे, तब शायद एक ही दशक में सरकारी शिक्षा की तसवीर एक आमूलचूल परिवर्तन के साथ बदल ही जाएगी। इसके साथ ही शिक्षा के नाम पर चल रही बड़ी ठगी व व्यवसाय पर अंकुश लग जाएगा। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा में अब भी बहुत सुधारों की आवश्यकता है। आज हमारा पूरा जोर अपनी सरकारी शिक्षण व्यवस्थाओं को बेहतर करने पर होना चाहिए। हम ऐसे कदम उठाएं, जिसका लाभ सारे देश के स्कूलों के माध्यम से गांवों और शहरों को हो। शिक्षा का योग्यता से जुड़ाव हो न कि पैसे और रूतबे से। असमान शिक्षा ही आर्थिक सामाजिक असमानता का पहला बड़ा कारण बन चुकी है।

साभार: अमर उजाला समाचार 

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