इस बार दसवीं और बारहवीं कक्षा के नतीजे इतने
बदतर क्यों आए, यह सवाल हर किसी के जेहन में कौंध रहा है। सियासी लोग इसे
अपने नजरिये से देख रहे हैं तो शिक्षाविद व शिक्षकों के अपने पैमाने हैं।
मोटी बात यह है कि मॉडरेशन में नाम पर हो रही अंकों की खैरात बंद हुई तो
प्रदेश की शिक्षा की कलई खुल गई। बहरहाल,
दसवीं और बारहवीं के बदतर परिणाम के बाद प्रदेश में शिक्षा नीति को लेकर एक
नई बहस शुरू हो गई है। रिजल्ट
मॉडरेशन के नाम पर परीक्षार्थियों में पिछले ढाई दशक से बांटी जा रही अंकों की ‘खैरात’ का उदाहरण देखिये। वर्ष 2011 में बिना ग्रेस दिए दसवीं की उत्तीर्ण प्रतिशतता 39.41 थी। इस आंकड़े में मॉडरेशन के नाम पर 28.62 की ग्रेस जोड़ दी और इसे 68.03 पर पहुंचा दिया। इस बार मॉडरेशन बंद किए जाने के फैसले से शिक्षाविदों का बड़ा तबका खुश है। उनका मानना है कि अंकों की खैरात बंद होने से कुछ लोग नाराज जरूर हैं, लेकिन मॉडरेशन बंद होने से कम से कम रियल पिक्चर तो सामने आई है। आठवीं तक फेल न करने की नीति पर भी शिक्षाविदों ने अंगुली उठाई है। 1979-80 और 1987-90 तक शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन रहे शिक्षाविद् डा. राजाराम का कहना है कि पिछले 27 साल से रिजल्ट मॉडरेशन के नाम पर बच्चे और अभिभावकों को मुगालते में रखा जाता रहा है। इस बार ‘रियल पिक्चर’ तो सामने आई है। इसे प्रदेश के नीति-नियंताओं को स्वीकारना चाहिए और शिक्षा के ढांचे के सुधार पर फोकस करना चाहिए। सच तो यह है कि हरियाणा में स्कूल जाना केवल औपचारिकता है। टीचर की क्वालिटी सुधारने की भी जरूरत है।
मॉडरेशन के नाम पर परीक्षार्थियों में पिछले ढाई दशक से बांटी जा रही अंकों की ‘खैरात’ का उदाहरण देखिये। वर्ष 2011 में बिना ग्रेस दिए दसवीं की उत्तीर्ण प्रतिशतता 39.41 थी। इस आंकड़े में मॉडरेशन के नाम पर 28.62 की ग्रेस जोड़ दी और इसे 68.03 पर पहुंचा दिया। इस बार मॉडरेशन बंद किए जाने के फैसले से शिक्षाविदों का बड़ा तबका खुश है। उनका मानना है कि अंकों की खैरात बंद होने से कुछ लोग नाराज जरूर हैं, लेकिन मॉडरेशन बंद होने से कम से कम रियल पिक्चर तो सामने आई है। आठवीं तक फेल न करने की नीति पर भी शिक्षाविदों ने अंगुली उठाई है। 1979-80 और 1987-90 तक शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन रहे शिक्षाविद् डा. राजाराम का कहना है कि पिछले 27 साल से रिजल्ट मॉडरेशन के नाम पर बच्चे और अभिभावकों को मुगालते में रखा जाता रहा है। इस बार ‘रियल पिक्चर’ तो सामने आई है। इसे प्रदेश के नीति-नियंताओं को स्वीकारना चाहिए और शिक्षा के ढांचे के सुधार पर फोकस करना चाहिए। सच तो यह है कि हरियाणा में स्कूल जाना केवल औपचारिकता है। टीचर की क्वालिटी सुधारने की भी जरूरत है।
एक नजर पिछले चार वर्ष के आंकड़ों पर:
वर्ष कक्षा बिन मॉडरेशन मॉडरेशन के बाद
2011 दसवीं 39.41 68.03
बारहवीं 58.31 72.85
2012 दसवीं 40.63 65.38
बारहवीं 57.60 67.84
2013 दसवीं 40.95 50.79
बारहवीं 58.85 59.85
2014 दसवीं 52.12 60.84
बारहवीं 61.72 72.91
सुविधाएं मिलने तक मॉडरेशन की पैरवी: हरियाणा
विद्यालय अध्यापक संघ के प्रदेश अध्यक्ष मास्टर वजीर सिंह रिजल्ट मॉडरेट न
किए जाने के फैसले को गलत मानते हैं। उनका कहना है कि जब स्कूलों में
सुविधाएं नहीं मिलती, तब तक मॉडरेशन जरूरी है। सुविधाओं के अभाव की सजा
बच्चों और अभिभावकों को देना अतार्किक है। प्रदेश में 30 हजार अध्यापकों की
कमी है। मॉनिटरिंग करने वाले अधिकारियों का भी टोटा है। 51 ब्लाक में खंड
मौलिक शिक्षा अधिकारी और 38 खंडों में बीईओ नहीं हैं।
सुधार के लिए सुझाव:
- कॉमन स्कूल सिस्टम नीति के तहत नेबरहुड स्कूल बनाने चाहिए। ऐसे स्कूल एरिया में केवल एक हो और इसी में डीसी से लेकर नेताओं व आम आदमी के बच्चे पढ़ें।
- आठवीं कक्षा तक ‘नो फेल’ नीति पर पुनर्विचार
- इंटरनल असेस्मेंट पॉलिसी को तर्क संगत बनाए जाने की जरूरत
- अध्यापकों के रिक्त 30 हजार पद भरे जाएं
- इंटरनल असेस्मेंट के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण
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साभार: अमर उजाला समाचार
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