पिछले दस वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था में जो
तेजी दिखी है, उससे भी तेज गति से स्कूलों की फीस बढ़ी है। हालत यह हो गई
है कि वर्ष 2005 में एक बच्चे को औसत स्कूल में पढ़ाने में 55,000 रुपये का
खर्च लग रहा था, वह आज बढ़ कर 1.25 लाख रुपये हो गया है। छोटे
स्कूलों में तो फीस में कई गुना की वृद्धि हुई है। उद्योग संगठन एसोचैम
द्वारा कराए गए एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पिछले दस वर्षों के दौरान
निजी स्कूलों में
पढ़ाई 150 फीसदी महंगी हो गई है। Post published at www.nareshjangra.blogspot.com स्थिति
इस हद तक गंभीर है कि अच्छा वेतन पाने वाले भी अपने वेतन का 30-40 फीसदी
हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर रहे हैं। यही प्रमुख कारण है कि लोग अब
दो बच्चे के बजाय एक बच्चा ही पैदा करना चाहते हैं। एसोचैम
के महासचिव डीएस रावत के मुताबिक सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता
में जिस तरह से गिरावट आई है , उसे देखते हुए दिहाड़ी मजदूर भी निजी स्कूल
में बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि इस अध्ययन में दिल्ली,
मुंबई, लखनऊ, चंडीगढ़, देहरादून, कोलकाता, चेन्नई जैसे शहरों के 1,600
वेतनभोगी लोगों को शामिल किया गया है। इसमें भाग लेने वाले हर 10 में से 9
लोगों ने कहा कि वह बच्चों को बेहद मुश्किल से निजी स्कूलों में पढ़ा पा
रहे हैं। हर दस में से एक अभिभावक ने तो कहा कि कि फीस की वजह से ही वह
अपने पसंद के स्कूल में बच्चों को नहीं पढ़ा पा रहे हैं। वर्ष
2005 में एक बच्चे का निजी स्कूल में पढ़ाई का वार्षिक खर्च 55,000 रुपये
था, जो कि अब बढ़ कर 1.25 लाख रुपये हो गया है। यहां तक कि प्ले स्कूलों
में भी अभिभावकों को 35,000 से 75,0000 रुपये का खर्च आ रहा है। अध्ययन में
यह भी उजागर किया गया है कि वे अपने स्कूल में अन्य स्कूलों से थोड़ा बहुत
अलग वर्दी रखते हैं ताकि लोग वहीं या उनके हिसाब के दुकान से ही इसे
खरीदें। एडमीशन के मौसम में तो ये दुकानदार स्कूल में ही स्टॉल लगा देते
हैं। साफ है कि दूकानदार कहीं न कहीं स्कूलों को फायदा पहुंचाते हैं। स्कूल
किताब और स्टेशनरी में भी इसी तरह का खेल करते हैं।
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साभार: अमर उजाला समाचार
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